Book Title: Syadvad
Author(s): Shankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
Publisher: Shankarlal Dahyabhai Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ [ २५ ] स्याद्वाद हमेशा एकान्त कथन नहीं करता, किन्तु अनेकान्त वचन उच्चारता है । एकान्त कथन करने में वस्तु में रहे हुए अनेकों दूसरे धर्मों को जानने में एक पर्दा गिर जाता है । एवं उससे बुद्धि का भी नाश होता है । जैसे किसी ने कहा: “घड़ा 'लाल है" तब स्याद्वादी कहता है, 'स्याद्रित" कथंचित् लाल है । अब यदि एकान्त दृष्टि की तरह उसमें संपूर्ण लालपन का आरोप किया जाय, तो उससे न्यूनाधिक लाल रङ्ग वाली बहुत सी चीजें होती है, उस समय क्या कहेंगे? इसी से वस्तु स्थिति का संपूर्ण ज्ञान होता है और के अनन्त गुणधर्म जानने के लिए ज्ञान के द्वार खुले होते हैं । कोई कहे ' रेती भारी है" तत्र स्याद्वादी कहता हैं "स्यादरित" यानी कथंचित् भारी है । यदि ऐसा न कहे तो लोहे की रत्ती उससे भी अधिक भारी होती है, उसके लिये कहने का जब मौका आवे तो फिर क्या कहना ? विशेष स्पष्टीकरण के लिये एक स्वर्ण का ग्लास लीजिए। वह एक अथे में द्रव्य है, सर्व अर्थ में द्रव्य नहीं है । क्योंकि आकाश और काल द्रव्य पृथक है । वैसे स्वर्ण द्रव्य भी पृथक है । और वह द्रव्य केवल परमाणुओं का समूह है। इस प्रकार एक समय में स्वर्ण द्रव्य है, दूसरा द्रव्य नहीं । अब वह स्वर्ण ग्लास पृथ्वी के परमाणुओं का बना हुआ है, उसका अर्थ यह हुआ कि सुवर्ण पृथ्वी के धातु का विकार है । वह पृथ्वी के एवं अन्य किसी का विकार रूप नहीं । धातु के परमाणु नों का बना है, इसका अर्थ यह है कि वह सुवर्ण के परमाणुओं का बना है न कि लोहे के परमा ओं का बना है और सुवर्ण के परमाणुओं का बना है तो वह सुत्रर्ण शुद्ध है या खदान से निकला है, शुद्ध बिना किये का है या "अ" का बनाया हुआ है या "ब" का ? इसका अर्थ यह है कि वह परमाणुओं का बना है। गिलास के रूप में बना है, घट के रूप में नहीं बना है । इस प्रकार जैन दर्शन कहता है कि वस्तु

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108