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कोई भी द्रव्य एकान्त दृष्टि से निरपेक्ष उत्पन्न नहीं होता । नाश भी नहीं होता तथा ध्रुव भी नहीं रहता । इस प्रकार किसी भी वस्तु का अस्तित्व अपने अपने द्रव्य क्षेत्र और काल भाव से हैं । परन्तु परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, और परभाव की अपेक्षा से नहीं है । इस प्रकार नित्यत्व और अनित्यत्व, सत्य और असत्य आदि अनेक धर्मो का एक ही वस्तु में सापेक्षरीत्या स्वीकार करना, उसको स्याद्वाद कहते हैं ।
वस्तु का सत्-असत् बाद भी स्याद्वाद है । परन्तु सत्य क्यों कहा जाता है ? यह अभी विचारणीय है । रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि अपने गुणों से -अपने धर्मों से हरेक वस्तु सत्य हो सकती है। दूसरे के गुणों से, दूसरे के धर्मों से कोई भी वस्तु सत्य नहीं हो सकती । उसकी अपेक्षा वह असत्य है । धनवान मनुष्य अपने धन से ही धनवान कहा जाता है, दूसरे के धन से नहीं । पिता अपने ही पुत्र की अपेक्षा से पिता है, अन्य के पुत्र की अपेक्षा से नहीं । इसी प्रकार सत् और असत्य भी समझा जा सकता है । लेखन किंवा वक्तृत्वशक्ति नहीं रखने वाला, ऐसा कहता है कि "मैं लेखक नहीं अथवा मैं वक्ता नहीं ।" इस शब्द प्रयोग में “मैं” भी कहा जाता है, वह उचित है । क्यों कि "मैं" स्वयं सत्य और मुझमें लेखन या वक्तृत्व शक्ति नहीं होने से उस शक्ति रूप में ' मैं" नहीं हूँ ।
इसप्रकार के उदाहरणों से समझा जा सकता है कि "सत्य" भी अपने जो सत्य "सत्य" नहीं है, उसकी अपेक्षा से “सत्य” कहा जाता है । इसप्रकार अपेक्षा दृष्टि से एक ही वस्तु में "सत्य" और ""सत्य" घटाया जा सकता है । वही 'स्याद्वाद' है ।
इस सिद्धान्त के प्ररूपक श्रमण भगवान श्री महावीर स्वामी स्वयं हैं । "उत्तर- हिन्दुस्तान में जैन-धर्म”, इस पुस्तक के