________________
अपेक्षा रहती है। इसी से उत्पत्ति के लिये अव्यक्त दशा में व्यक्त कार्य सापेक्ष व्यवहार संभवित नहीं। इसी प्रकार "असत्" है, वह उत्पत्ति की अपेक्षा से । शक्ति की अपेक्षा से तो कार्य सत् ही है। अतः प्रत्येक कारण में से,कार्य की उत्पत्ति को यदि मनुष्यशृङ्ग' जैसी अत्यन्त असत् वस्तु की उत्पत्ति का अवकाश ही नहीं। जिस कारण में जो कार्य प्रकटाने की शक्ति होती है,उसी में से प्रयत्न होने पर वह कार्य प्रकट होता है, दूसरा नहीं । साथ ही शक्ति भी नहीं, ऐसा भी नहीं। इस प्रकार "सत्" और "असत्" वाद का समन्वय होने पर ही, दृष्टि पूर्ण और शुद्ध होती है। उसमें से दोष निकल जाते हैं। अनेकान्त दृष्टि से घट रूप कार्य इस पृथ्वी रूप कारण से अभिन्न और भिन्न फलित होता है। अभिन्न इसलिये कि मिट्टी में घड़ा पैदा करने की शक्ति है, घड़ा बनने पर भी वह बिना मिट्टी का नहीं होता। भिन्न इसलिये है कि उत्पत्ति के पहले मिट्टी ही थी। घड़े की प्राकृति अदृश्य थी। इसी से घड़े से होने वाला संभवित कार्य भी संभव नहीं था, यानी नहीं होता था।
अतः "स्याद्वाद" दृष्टि की व्यापकता, महत्ता तथा उपयोगिता है । इसी दृष्टि से मत-संघर्षण और परस्पर का वैमनस्य शांत किया जा सकता है। अशांति के स्थान पर शांति स्थापित हो सकती है। जगत के बहुत से मतभेद सम्भवित हैं, परन्तु उसमें भी यदि सामने वाले का दृष्टिबिन्दु देखकर वर्ताव किया जाय, तो उससे बहुत से क्लेश कम हो सकते हैं और सबके साथ समन्वय की साधना हो सकती है।
प्रत्येक घर, कुटुम्ब, समाज, संप्रदाय अगर इस सिद्धांत को अपनायें तो बहत उत्कर्ष हो सकता है। संसार में परस्पर वैमनस्य का मूल ही मतभेद है। जहां मतभेद है, वहां विरोध