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है। जहां विरोध है, वहां अशांति है । समन्वय पूर्वक जो कार्य किया जाता है उसमें शांति ही है । और " स्याद्वाद" दृष्टि का मुख्यतया यही कार्य है कि विरोधी तत्वों से अविरोधी मूल खोज कर समन्वय कराना ।
राजनीतिज्ञ पुरुष भी शासन चलाने में, प्रजा के मानस को पहचान कर विरोध करने वालों के दृष्टिकोण को देखकर और पूर्ण विचार कर यदि राज शासन करे तो उससे राज्य और प्रजा दोनों में शांति रह सकती है ।
“स्याद्वादी” अहंभावी अभिमानी और दम्मी नहीं हो सकता । उसको तो न्याय और नाति का ही अवलम्बन रहता है ।
पंच, पंचायत, महाजन, सहकारी मंडल ये सभी राज्य के संगठन बल के प्रेरक हैं और हैं शांति के स्वरूप भी । यदि वे विधानपूर्वक व्यवस्थित रीति से चलें तो प्रजा का उत्कर्ष बहूत ही हो सकता है । झगड़ों के प्रसंग कम होंगे। साथ ही प्रजा का अपार द्रव्य कोटों के द्वारा जो नष्ट होता है, वह बच सकता है । परस्पर के वैमनस्य कम हो सकता है और सभी प्रेम भाव से रह सकते हैं । सरकार की ओर से J. P. (Justice of Peace) बनाये जाते हैं, उनका भी यही ध्येय है ।
स्व-दृष्टि- बिन्दु
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ऊपर जो लिखा गया है वह सामने का दृष्टिबिन्दु देखने के सम्बन्ध में हैं । किन्तु उसके साथ ही साथ हमें अपना भी दृष्टिबिन्दु देखना चाहिए । हम जगत में क्या देख रहे हैं ! दृष्टि वैसी सृष्टि । जैसा भी हमारा दृष्टिकोण होगा, वैसे ही पदार्थ हमें प्रति- भासित होते हैं । शुद्ध नेत्र वाला मनुष्य सफेद को सफेद