Book Title: Syadvad
Author(s): Shankarlal Dahyabhai Kapadia, Chandanmal Lasod
Publisher: Shankarlal Dahyabhai Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ [ ५ ] की रचना की है और १४४४ ग्रन्थों के रचयिता महा प्रखर ज्ञानी श्री हरिभद्र सूरि जी महाराज ने 'षट्-दर्शन समुच्चय' में दर्शनों की निष्पक्ष समालोचना करके अपनी उदार वृत्ति का परिचय कराया है। इसके अतिरिक्त श्री मल्लवादि, श्री हरिभद्र सूरि, पण्डित श्री आशाधर राजशेखर तथा महामहोपाध्याय श्री यशोविजय जी आदि अनेक जैन गीतार्थों ने वैदिक एवं बौद्ध धम ग्रन्थों पर टिक्का-टिप्पणी आदि लिखकर अपनी गुण-ग्राहिता समन्वय वृत्ति और हृदय की विशालता का स्पष्ट-रित्या परिचय कराया है। इससे स्पष्ट होता है कि स्याद्वादी में हृदय की विशालता होती है, गुण-ग्राहिता होती है और मैत्री की अभिलाषा। दर्शनों की समालोचना करने से प्रकट होता है कि अमुक दर्शन, अमक नय को स्पर्श करता है, और अमुक दर्शन अमुक नय को। जिससे सम्पूर्ण दर्शन नयसमुहात्मक स्याद्वाद में गभितरीत्या रहे हुये हैं । स्याद्वादी हमेशा सत्यावलम्बी होता है। वह एकान्त मार्गी की तरह संकुचित मनोवृत्तिवाला किंवा उत्शृङ्खल मनोवृत्ति वाला नहीं होता है। वह सबके साथ प्रेमपूर्वक समन्वय को साधता है । स्याद्वादी का बोलना हमेशा सापेक्ष (हेतु युक्त) होता है। हेतु तो जगत में अनेक ही विद्यमान हैं, किन्तु उसका वास्तविक बोलना सापेक्ष होता है। निरपेक्ष वचन में केवल संसार-बंधन के सिवा और कुछ नहीं है । जैनों के परम योगी गीताथ श्रीमत् आनन्दघन जी ने एक प्रभु-स्तुति में कहा वचन निरपेक्ष, व्यवहार झूठो कहयो, बचन सापेक्ष, व्यवहार साचों । वचन निरपेक्ष, व्यवहार संसार फल, सांभली, आदरी, कांई राचो ।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108