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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
कुषाण नरेशों के शासनकाल, 78 ई. के बाद से सम्बन्धित मथुरा से प्राप्त अभिलेखों से यह ज्ञात होता है कि यहां पर जैन सम्प्रदाय न केवल अधिष्टित ही था वरन् पहले से ही यह छोटे-छोटे वर्गों में विभक्त हो गया था।
चौथी शताब्दी में शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा और बल्लभी में दो जैन संगीतियां बुलाई गई थीं। महावीर स्वामी के निर्वाण के 827वें वर्ष मथुरा में आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में जैन संगीति का आयोजन किया गया। दूसरी जैन संगीति इसी समय नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में आयोजित हुई।
ये जैन संगीतियां जैन धर्म के प्राचारार्थ एवं जैन साधुओं को संगठित करने की दृष्टि से बुलाई गई थी। इन संगीतियों में जैन धर्म के श्रमण एवं श्रमणचर्या के गठन के साथ-साथ जैन धर्म की रचना सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं का समाधान निकालने का प्रयास किया गया था।42
महावीर स्वामी के पश्चात् शूरसेन जनपद में ज्ञात जैन साधुओं द्वारा श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय का प्रचार कार्य प्रारम्भ हुआ। सात जैन साधु थे- सुरमन्त्र, श्रीमन्त्र, श्री तिलक, सर्वसुन्दर, जयमन्त्र, अनिल ललित और जयमित्र।
शूरसेन जनपद में सरस्वती आन्दोलन हुआ। इस तथ्य की पुष्टि सरस्वती की प्राचीनतम् प्रतिमा से होती है। सरस्वती की प्रतिमा बनाकर मथुरा में जैनागमों को संकलन एवं सुरक्षित करने का प्रयास किया। सरस्वती देवी को जैन धर्म में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त है।"
शूरसेन जनपद के प्रमुख जैन केन्द्र कंकाली टीले से सर्वाधिक जैन मूर्तियां एवं कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं। ____ कला की दृष्टि से शूरसेन जनपद का प्रमुख स्थान है। गान्धार कला के साथ शूरसेन जनपद में मथुरा कला शैली विकसित हुई थी मथुरा कला के अंतर्गत निर्मित मूर्तियां भारतवर्ष के अन्य क्षेत्रों में भेजी जाती थीं। मथुरा कला विशुद्ध भारतीय थी।