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शूरसेन जनपद में जैन वास्तुकला
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उनकी स्मृति में पुत्र भरत द्वारा उनके निर्वाण-स्थान कैलाश पर्वत पर एक चैत्य तथा सिंह- निषद्या-आयतन निर्माण कराये जाने का उल्लेख किया है। _ 'अर्द्धमागधी जम्बूद्वीपपण्णति' में तो निर्वाण के पश्चात् तीर्थंकर के शरीर-संस्कार तथा चैत्य-स्तूप निर्माण का विस्तृत वर्णन किया गया है।
उपर्युक्त उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परानुसार महापुरुषों की चिताओं पर स्तूप निर्माण कराये जाते थे। ___ अध्ययन क्षेत्र में एक अत्यन्त प्राचीन जैन स्तूप के विषय में उल्लिखित है कि प्राचीन काल में विद्याधरों द्वारा पाँच स्तूप निर्मित कराये गये थे। इन पाँच स्तूपों की ख्याति और स्मृति मुनियों की वंशावली से सम्बद्ध पाई जाती है। __ 'वृहत्कल्पसूत्रभाष्य'24 से ज्ञात होता है कि अध्ययन क्षेत्र के छियानब्बे गाँवों के चौराहों पर ‘मंगल चैत्य' निर्मित किये गए थे, और उनमें अर्हत् प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की गई थी। उद्देश्य यह था कि उनसे गाँवों के भवनों को स्थायित्व प्राप्त होगा। __ जैन और अजैन सभी ग्रामीणों का यह लोक विश्वास था कि नव निर्मित भवनों के समीप ‘मंगल चैत्य' न होने से उनके असमय ही गिरने की आशंक हो सकती है। उस लोक-विश्वास से जैन धर्म के तत्कालीन चैत्यों के प्रति जनता की आस्था का परिचय मिलता है। ____1888 और 1891 ई. के मध्य फ्यूरर ने कंकाली टीले का उत्खनन कार्य किया और उन्हें खोजकार्य में एक स्तूप और दो मन्दिरों के अवशेष तथा असंख्य जैन कलाकृतियाँ प्राप्त हुईं।
कंकाली टीले से प्राप्त जैन पुरावशेषों से यह ज्ञात होता है कि जैन प्रतिष्ठान एक ऐसे स्तूप के चारों ओर निर्मित हुआ था, जो कि अत्यन्त श्रद्धा एवं आदर की वस्तु बन गया था। 157 ई. के शिलालेख में जो एक प्रतिमा के पादपीठ पर उत्कीर्ण है और तथाकथित 'बोद्ध-स्तूप' पर अर्हत नन्द्यावर्त की प्रतिमा के स्थापित किए जाने का उल्लेख है।