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शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति
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कटराकेशव देव आदि की खुदाई के द्वारा बहुसंख्यक जैन पाषाण कलाकृतियाँ प्राप्त हुई हैं।
जैन धर्म ने न केवल मनुष्यों को आध्यात्मिक व नैतिक स्तर पर उठाने का प्रयत्न किया। अपितु शूरसेन जनपद के भिन्न-भिन्न भागों को सांस्कृतिक गरिमा प्रदान की। इनके दर्शन से हृदय पवित्र और आनन्द विभोर हो जाता है।
जब जैन संस्कृति शब्द का प्रयोग किया जाता है तब इससे तात्पर्य यह है कि जैन धर्मानुयायियों का एक समाज है और वह अपनी संस्कृति की पहचान कराने वाली आचार एवं विचारगत विशेषताओं से मण्डित है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि अन्य संस्कृतियों के हृदय से जैन संस्कृति की आत्मा भिन्न है। सर्वोन्मुखी संस्कृति के रूप में श्रमणों ने अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित की। ___ जैन धर्म ने वर्ण-जाति रूप समाज विभाजन को कभी महत्व नहीं दिया। आज के ईर्ष्या और संघर्ष के विष से जलते हुए संसार को जीवमात्र के कल्याण और उत्कर्ष की भावनाओं से ओत-प्रोत इस अमृत समान उपदेश की सर्वाधिक आवश्यकता है।"
बौद्धों ने भी शरसेन जनपद की राजधानी में अपने अनेक केन्द्र स्थापित किए। अनेक पौराणिक देवताओं की प्रतिमाओं की भाँति भगवान बुद्ध की प्रतिमा का निर्माण भी सबसे पहले मथुरा कला शैली के अन्तर्गत हुआ। यह स्थान भारत का एक प्रमुख केन्द्र है।
भगवान कृष्ण की जन्म तथा लीला क्षेत्र मथुरा है तो बाइसवें जैन भगवान नेमिनाथ का जन्म स्थान शौरिपुर है तथा दोनों चचेरे भाई के रूप में वर्णित किये गए है।' इस अवसर पर देवताओं ने नेमिनाथ भगवान के गर्भ और जन्म कल्याणकों का महान् उत्सव शौरिपुर में मानया।
सबसे प्रमुख सांस्कृतिक विशेषता यह दृष्टव्य होती है कि वैदिक-पौराणिक, जैन तथा बौद्ध धर्म शूरसेन जनपद में सदैव शताब्दियों