Book Title: Shursen Janpad Me Jain Dharm Ka Vikas
Author(s): Sangita Sinh
Publisher: Research India Press

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Page 171
________________ 147 शूरसेन जनपद में जैन धर्म का योगदान साहित्य में जो ग्रन्थ अर्द्धमागधी में उपलब्ध हैं, वह अर्द्धमागधी तीर्थंकर महावीर की दिव्य ध्वनि की भाषा नहीं है । इसका रूप तो चौथी - पाँचवीं शताब्दी में गठित हुआ । 22 'नाट्यशास्त्र' में यह प्रेरणाप्रद तथ्य उल्लिखित है कि शौरसेनी को सभी उत्तम पुरूषों के द्वारा काव्य आदि साहित्यिक रचनाओं में प्रयोग करना चाहिए | 23 जैन आचार्यों का मुख्य उद्देश्य धार्मिक सिद्धान्तों तथा नैतिक शिक्षाओं को समाज के सम्मुख उपस्थित करना था। इसके लिए उन्होंने सभी प्रचलित भाषाओं को अपनाया । जब अपभ्रंश भाषा का विकास हुआ, तब जैन लेखकों ने अपनी रचनाओं से उसे समृद्ध किया । अपभ्रंश साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए जैन धर्मानुयायियों ने विशेष प्रयत्न किया, क्योंकि यह उनके लिए उसी प्रकार उपयोगी थी जिस प्रकार संस्कृत तथा प्राकृत भाषाएं । शूरसेन जनपद में भाषा एवं साहित्य को सुरक्षित रखने के लिए जैन लेखकों एवं आचार्यों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया । शूरसेन जनपद की प्रमुख भाषा शौरसेनी का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ । शूरसेन जनपद के व्यापारियों का विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध थे । उनके आवागमन से समकालीन शब्द- सम्पदा का भी आयात-निर्यात होता रहा । साधु संतों के सर्वत्र विहार करने से तथा श्रुतांगों एवं पठन-पाठन एवं स्वाध्याय करते रहने तथा प्रवचनों का माध्यम शौरसेनी प्राकृत रहने से वह अन्य साहित्यिक ग्रन्थों एवं दैनिक जीवन में भी दूध-शक्कर की भाँति घुल-मिल गई । उदाहरणार्थ सियाराम एवं नरमादा के सिया एवं मादा सीता एवं माता के शौरसेनी रूप है | 24 शौरसेनी - साहित्य के आचार्यों ने केवल आत्महित का सिद्धान्त प्रतिपादित नहीं किये, अपितु सम्पूर्ण जगत के लिए कल्याकणकारी अणुव्रत - पालन के माध्यम से सर्वोदय - सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया ।

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