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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
___ चौथी शताब्दी में आगमों को पुनः व्यवस्थित रूप देने के लिए आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा में द्वितीय सम्मेलन आयोजित किया गया। जैन आगमों की यह दूसरी वाचना ‘मथुरी वाचना' के नाम से प्रसिद्ध है। इसी समय नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी (सौराष्ट्र) में एक और सम्मेलन आयोजित हुआ और विस्मृत सूत्रों को संकलित किया गया।
जैन धर्म का केन्द्र मगध से बदलने के बाद शूरसेन जनपद अस्तित्व में आया। कुषाण शासकों ने बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सरस्वती आन्दोलन का प्रभाव धीरे-धीरे सम्पूर्ण देश में फैल गया। सरस्वती की अभिलिखित प्रतिमा निर्मित होने के पश्चात् सम्पूर्ण देश में सर्वत्र सरस्वती की प्रतिमा के निर्माण का अभियान प्रारम्भ हो गया। सरस्वती प्रतिमा को सर्वत्र निर्मित कराने में शूरसेन जनपद का महत्वपूर्ण योगदान है।
वीर निर्वाण के पश्चात् दशमी शती में श्वेताम्बरों ने पाटलिपुत्र, मथुरा और वल्लभी द्वारा उस समय की अपनी भाषा में अंगों का संकलन किया उनकी भाषा को अर्द्धमागधी नाम दिया गया। षट्खडागम, कसायपाहुड़ से प्रारम्भ कर ‘समयसार', 'धवला' आदि की दिगम्बर आचार्यों द्वारा रचना हुई, उनकी भाषा का शौरसेनी नामकरण किया गया। ___ हार्नले के मतानुसार “अर्द्धमागधी का रूप गठन मागधी और शौरसेनी से हुआ है। प्राकृत भाषा के दो वर्ग हैं, एक वर्ग में शौरसेनी बोली है और दूसरे में मागधी, प्राकृत बोली है, इनके मध्य में एक रेखा उत्तर में खिंचने पर खालसी से बैराट, इलाहाबाद और दक्षिण में रामगढ़ से जौगढ़ तक है। इस प्रकार शनैः-शनैः ही दोनों प्राकृत, मागधी और शौरसेनी मिलकर तीसरी अर्द्धमागधी बन गई।
यही तथ्य प्रियर्सन ने भी उल्लिखित किया है। प्राचीन भारत में शौरसेनी और मागधी दो ही भाषाएं थीं। वर्तमान में श्वेताम्बर आगम