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उपसंहार
अन्तर्गत निर्मित प्रतिमाओं में लाँछन उत्कीर्ण किया गया । यह महत्वपूर्ण विशेषता है।
इस क्रमिक विकास में गुप्तकाल में भी जैन धर्म वैष्णव धर्म के समान ही समाज में विद्यमान चार गुप्त शासक वैष्णव मतावलम्बी थे परन्तु उनमें धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी, फलतः उन्होंने सभी धर्मों को आश्रय प्रदान किया तथा सभी धर्मों की प्रगति में योगदान दिया।
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अपने मूल निवास स्थान मगध से आरम्भ होकर पूर्व में कलिंग, पश्चिम में शूरसेन दक्षिण पश्चिम में मालवा तथा दक्षिण में महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रदेशों में जैन धर्म विकसित हुआ।
गुप्त शासन काल में बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात तथा राजस्थान में जैन धर्म वैदिक तथा बौद्ध धर्मों के साथ फलता-फूलता रहा। कई राजवंश शासकों के मन्त्रिगण तथा व्यापारी जैन धर्म के प्रति आस्थावन थे। देवालयों का निर्माण, तीर्थंकरों की पूजा, जैन समारोहों का आयोजन तथा ज्ञान का प्रसार चौथी से छठी शती तक विशेष रूप से हुआ।
गुप्तों के पतन के पश्चात् से बारहवीं शती ई. तक विवेच्य क्षेत्र में जैन धर्म का उल्लेखनीय प्रचार-प्रसार हुआ । मुस्लिम आक्रान्ताओं के आगमन के बाद भी अन्य धर्मों के साथ-साथ जैन धर्म को भी आघात पहुँचा । राजाश्रय के अभाव में एवं बर्बर आक्रमणों के पश्चात् भी जैन धर्म आज भी विद्यमान है ।
जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में मौर्यवंश के राजाओं से लेकर राजपूत युग के शासकों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
विवेच्य अध्ययन क्षेत्र में जैन धर्म के मुख्य केन्द्रों में कंकाली टीला, जैन चौरासी, बटेश्वर, शौरीपुर, सोख, अरिंग, महावन, छाता, मठ, भुतेश्वर, बरसाना और चौबिया पाड़ा आदि प्राचीन ऐतिहासिक प्रमुख स्थल हैं। जहाँ से उत्खनन द्वारा विपुल जैन कलाकृतियाँ प्रकाश में आई