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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
होता है। इसमें नन्दिपाद एवं श्रीवत्स का अंकन दृष्टव्य होता है। स्तूप के अण्ड भाग के मध्य में वेदिका स्तम्भ का भाग दिखायी पड़ता है। इसका नाम उसमें उत्कीर्ण है।
इस आयागपट्ट से यह स्पष्ट होता है कि कुषाणकाल में नर्तकियाँ भी धार्मिक कार्यों में योगदान देती थीं।
विवेच्य क्षेत्र से प्राप्त जैन कलाकृतियों में मूर्तिकार ने आकृतियों को अंकित करके तत्कालीन जैन समाज के साधु, साध्वी, गृहस्थ एवं गृहणी चारों वर्गों की झांकी प्रस्तुत की है। चारो वर्ग का अंकन तीर्थंकर प्रतिमाओं के पादपीठों पर अंकित है। चरण चौकी पर उत्कीर्ण लेखों से यह विदित होता है कि स्त्रियों ने अधिकांश प्रतिमाओं के लिए धर्मदान दिया था। __ अध्ययन क्षेत्र में बहुसंख्यक जैन धर्मावलम्बी निम्न वर्गों के थे। जैन धर्म में उन सभी को उसी प्रकार श्रावक-श्राविका माना गया है जैसा उच्च वर्गों के लोगों को स्वीकार किया गया है। उनके साथ कोई भेद-भाव नहीं था। ये सब लोग गृहस्थ थे। जो गृहस्थ जीवन का त्यागकर साधु बन जाते थे उन्हें साधु या साध्वी कहा जाता था। जातिगत वर्ण व्यवस्था पर प्रहार कर समाज के विभिन्न वर्गों के मध्य समानता स्थापित करने का क्रान्तिकारी कदम उठाने का सर्वाधिक श्रेय जैन धर्म को है।
महावीर स्वामी द्वारा स्थापित साधु-साध्वी परम्परा ने भगवान महावीर के उपदेशों एवं कृतित्व परम्परा को आगे बनाए रखा। जैन गृहस्थों के लिए यह नियम था कि वे विनम्रतापूर्वक साधुजनों की वन्दना करें, वे साधु सांसारिक जीवन में चाहे किसी भी कुल में जन्म लिया हो। महावीर स्वामी की शिक्षाओं की यह एक अनुपम देन है। ___ जैनधर्म का शूरसेन जनपद में सर्वाधिक योगदान है। कला, साहित्य, धर्म, दर्शन आदि सभी क्षेत्रों में जैन धर्म का बहुमूल्य योगदान दृष्टिगोचार होता है।