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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
श्रृंगार और अलंकरण के रूप में शालभंजिका प्रतिमाओं का अंकन होने लगा।
शूरसेन जनपद की शालभंजिका प्रतिमाएँ कला की अमर कृतियाँ हैं। इनमें अशोक, चम्पक, नाग केसर कदम्ब आदि वृक्षों के सहारे खड़ी हुई युवतियों के अंग-विन्यासों का मनोहर चित्रण मिलता है।
जैनग्रन्थों ‘रायपसेणियसूत्र' में विमान के आलंकारिक वर्णन के प्रसंग में अनेक स्थलों पर शालभंजिका मूर्तियों का उल्लेख किया गया है। ये मूर्तियों बड़े ही कलात्मक ढंग से निर्मित की गई है। __ शूरसेन जनपद से प्राप्त वेदिका स्तम्भों पर स्नान और प्रसाधन के अनेक दृश्य अंकित हैं।
शूरसेन जनपद के निवासी आर्थिक दृष्टि से समृद्ध थे। समाज में सभी वर्ग के स्त्री-पुरुष स्वयं को आभूषणों से अलंकृत करते थे। आभूषण सोने, चाँदी, मणि-मुक्ताओं और रत्नों आदि से निर्मित होते थे।" स्त्रियाँ हार, कुण्डल, कड़े, अंगूठियाँ, कमरबन्ध, पैरों में नूपुर पहनती थीं।
स्त्रियाँ रंग-बिरंगी सुन्दर मालाएँ धारण करती थीं।
तत्कालीन पुरातात्विक अवशेषों के अनुशीलन से विदित होता है कि विद्याधरों का स्थान महत्वपूर्ण था। विद्याधरों को आकाशगामी भी कहा गया है। वे अपनी इच्छानुसार निर्मित श्रेष्ठ विमानों में यात्रा किया करते थे। उन्हें जैन धर्म में भक्तों के रूप में चित्रित किया गया है। विद्याधर अनेक कलाओं का प्रयोग करने में निपुण थे। कंकाली टीले से प्राप्त अनेक कलाकृतियों में उड़ते हुए विद्याधरों का सजीव अंकन किया गया है।
शूरसेन जनपद में जिस संस्कृति का दर्शन होता है वही संस्कृति सम्पूर्ण उत्तर-भारत अथवा सम्पूर्ण भारत में विद्यमान थी।
जैन धर्म में अन्तिम संस्कार करने की विधि के विषय में उल्लिखित है कि मृतक का अन्तिम संस्कार करने के पश्चात् उसके ऊपर चैत्य और