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शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति
वृद्ध, युवा सभी आभूषणों से सज्जित होकर नाचते, गाते, बजाते, भोजन-पान करते आनन्दमग्न होते थे। 65
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मनोरंजन के लिए पशु-पक्षियों को आपस में लड़ाना भी प्रसिद्ध है जैन ग्रन्थों में महषि-युद्ध, कुक्कुट - युद्ध और मयूर - युद्ध का उल्लेख किया गया है। राजाओं के व्यस्त जीवन में आखेट मनोरंजन का प्रमुख साधन था 1 titi
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'ज्ञातधर्मकथांग' से यह विदित होता है कि गणिकाएँ भी तत्कालीन समाज का मनोरंजन करती थीं। 7
जैन स्तम्भों पर भी मनोविनोद के दृश्य उत्कीर्ण किये गये हैं । मथुरा कला शैली में पक्षियों के साथ क्रीडा करने के अनेक दृश्य उपलब्ध हुए हैं। फूल चुनने और गेंद खेलने के भी कई मनोरम दृश्य शूरसेन जनपद के केन्द्रों से प्राप्त वेदिका स्तम्भों पर देखे जा सकते हैं। कंकाली टीले से प्राप्त स्तम्भों पर इस प्रकार के कथात्मक मनोरंजन का अंकन बहुलता से प्राप्त हुआ है।
प्रकृति के साथ मानव जीवन का घनिष्ठतम् सम्बन्ध रहा है 1 इसका उदाहरण साहित्य में नहीं अपितु कला में भी लता-वृक्षों, पशु-पक्षियों, नदी-सरोवरों आदि के साथ लोक जीवन का गहरा सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है । इस प्रकृति सम्बन्ध ने अनेक उत्सवों को जन्म दिया, जिनमें एक शालभंजिका का उत्सव था ।
शालभंजिका उत्सव के दिन नवोढ़ा या अन्य युवती जिसके पैर महावर से रंगे हुये तथा आभूषणों से सुसज्जित होकर अशोक वृक्ष के निकट जाती थी । एक हाथ से वह वृक्ष की डाल पकड़ती और फिर पैर का कोमल आघात करती थी । इस उत्सव को 'अशोक दोहद' भी कहते है। अर्थात् इस उत्सव का यह अभिप्राय था कि युवती के चरणों के आघात से अशोक का पेड़ पुष्पित हो जाता था ।
इस उत्सव में भाग लेने वाली स्त्री को 'शालभंजिका' की संज्ञा दी गयी। उद्यानों के अतिरिक्त मन्दिरों और स्तूपों में राजा के घरों में भी