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शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति
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भारत देश में लेखन प्रवृत्ति को लोकप्रिय एवं जनप्रिय बनाने वाले लोग शूरसेन जनपद के जैन मुनि ही थे और इस काल की शूरसेन जनपद में ही सर्वप्रथम एक सुगठित जैन मुनि संघ के साथ-साथ एक सुव्यवस्थित एवं विशाल जैन साध्वी संघ के भी दर्शन होते हैं।
प्राचीन काल से लेखन कला का ज्ञान प्रारम्भ हो चुका था।" लेखन कलाओं को बहत्तर कलाओं में भी उल्लिखित किया गया है। सार्थवाह के लोग भी अपनी यात्रा के समय शिला पर मार्ग-सूचक चिन्ह बनाते थे, जिससे यात्रियों के आने-जाने में सुविधा हो।"
लिपियों के क्रम में सर्वप्रथम ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का उल्लेख मिलता है। ब्राह्मी लिपि बायें से दायें और खरोष्ठी लिपि दायें से बायें की ओर लिखी जाती थी। खरोष्ठी लिपि प्राचीन भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में प्रचलित थी और गान्धार की स्थानीय लिपि के रूप में विख्यात
थी।
___ ब्राह्मीलिपि में जैन अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं। ब्राह्मी के परिणामस्वरूप देवनागरी वर्णमाला का विकास हुआ।
भगवान महावीर ने अर्द्धमागधी भाषा में अपने प्रवचन का उपदेश दिया था। सभी पर इस भाषा का प्रभाव पड़ा तथा यह भाषा के साथ-साथ पशु-पक्षियों तक की समझ में आ सकती थी। - इससे सिद्ध होता है कि जैसे बौद्धों ने मागधी भाषा को सब भाषाओं का मूल माना है, वैसे ही जैनों ने अर्धमागधी को आर्य भाषा का मूल स्वीकार किया। जैन आगमों की भाषा भी अर्धमागधी है। ___भरतमुनि' ने मागधी, अवन्ती, प्राच्य, शैरसेनी, ब्रालीका और दाक्षिणत्य के साथ-साथ अर्धमागधी को सात प्राचीन भाषाओं में उल्लिखित किया है। आचार्य हेमचन्द्र ने जैन आगमों के प्राचीन सूत्रों की भाषा अर्धमागधी बतायी है। उन्होंने प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्रंश भाषाओं का भी उल्लेख किया है।"