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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति के अन्तर्गत प्रतिमाकला का प्रारम्भ मथुरा कला शैली के द्वारा ही प्रारम्भ हुआ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। ___ शूरसेन जनपद में जैन तीर्थंकरों की जीवन गाथाओं से सम्बन्धित दो महत्वपूर्ण कलाकृतियों कंकाली टीले से प्राप्त हुई हैं। जिनों के जीवन से सम्बन्धित कलावशेष अन्यत्र दुर्लभ हैं। ___ शुंगकालीन प्रथम कलाकृति में प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की सभा में नीलान्जना अप्सरा के नृत्य का दृश्यपट्ट है।" इस दृष्यपट्ट से यह स्पष्ट होता है कि शूरसेन जनपद में नृत्यकला अपनी विकसित अवस्था में थी। गीत एवं नृत्य का एकमात्र यह प्रस्तर पट्ट तत्कालीन जैन संस्कृति का बोध कराते हैं।
अप्सरा के नृत्य पट्ट का कंकाली टीले से प्राप्त होने के कारण यह तथ्य स्पष्ट होता है कि मथुरा कला शैली के शिल्पकारों ने जैन तीर्थंकरों के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं को उत्कीर्ण करने का कार्य सबसे पहले प्रारम्भ किया।
एक अन्य कुषाणकालीन कृति चौबीसवें जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी की जीवन से सम्बन्धित है। इस अमूल्य प्रस्तर कलाकृति में भगवान महावीर के भ्रूण को क्षत्राणी त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरित करने की गाथा को उत्कीर्ण किया गया है। ___ इस प्रस्तर कथा से यह विदित होता है कि शूरसेन जनपद के प्राचीन चिकित्सक गर्भ-स्थानान्तरण की अत्यन्त जटिल शल्य-क्रिया में निपुण थे।
शूरसेन जनपद के जैन मुनियों ने जैन धर्म को न केवल वर्ण, जाति, लिंग आदि के भेदभाव से मुक्त रखा और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
और विभिन्न व्यवसायों को करने वाले उच्च जातीय, नीच जातीय, विविध वर्गीय, देशी-विदेशी, स्त्री-पुरुष, सभी को समान अधिकारों के साथ स्वधर्म में दीक्षित किया, वरन अपनी धर्माश्रित कला को भी विविध प्रकारों एवं रूपों में अत्यन्त उदारता के साथ पल्लवित किया।