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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
भारतीय इतिहास पर विहंगम दृष्टि डाले तो यह स्पष्ट होता है कि धरती ने अपनी सहिष्णुता सुगन्धि में आक्रामक समुदायों तक को आप्लावित कर उन्हें भारतीय बना दिया। आर्येतर सभ्यता के अवशेष हड़प्पा, मोहनजोदड़ों, कालीबंगा, रंगपुर आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इनसे पश्चिमी एशिया की सभ्यताओं में पारस्परिक सम्बन्धों का सहज ज्ञान होता है।
वैदिक साहित्य में आर्येतर जातियों की धार्मिक-सामाजिक मान्यताएँ ज्ञात हुई है। उनके कतिपय आचार-विचार को आत्मसात कर आर्यों ने अपनी सहिष्णुता की प्रकृति का परिचय दिया।
जैन परम्परा में सभी तीर्थंकर भगवानों को गंगा-यमुना प्रदेश तथा सूर्य, चन्द्रवंशी होने का उल्लेख किया गया है। मनीषी संस्कृति निर्माताओं ने देश के विभिन्न भागों में विचरण करके जीवन का सन्देश प्रसारित किया। ___ सत्य, अहिंसा, त्याग तथा परोपकार के प्रति पूर्ण आस्था रखने वाले जैन मुनियों का जीवन आदर्शमय था। जनसाधारण उनके प्रति अपार श्रद्धा का भाव रखती थी तथा उनसे उत्तम व्यवहार की शिक्षाएँ ग्रहण करने के लिए तत्पर रहती थी। जैन मुनियों का अधिकतम समय अध्ययन, मनन तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्य करने में व्यतीत होता था, जिससे समाज का नैतिक स्तर ऊँचा उठ सके। ___ मुनि संघ जनसामान्य के निकट आने का प्रयत्न करते थे। जैन मुनि क्षेत्रीय भाषाओं में अपने प्रवचन एवं उपदेश प्रदान करते थे। फलस्वरूप स्थानीय भाषाओं के स्तर को गरिमा प्राप्त हुई।
समय-समय पर शूरसेन जनपद में शासकों का सहयोग जैन धर्म को प्राप्त होता रहा। शासकों के साथ व्यवसायियों तथा व्यापारियों ने जैन धर्म एवं संस्कृति के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण आर्थिक सहायता प्रदान की। शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थी। जहाँ पर विदेशी व्यापारी भी आते थे। राजाओं तथा