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शूरसेन जनपद में जैन संस्कृति
शूरसेन जनपद के प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र शौरीपुर में श्रीधन्य, यम, विमलासुत, अलसत्कुमार कैवलियों को निर्वाण प्राप्त हुआ था । फलस्वरूप शूरसेन जनपद की गणना सिद्ध क्षेत्रों में की जाने लगीं।
शूरसेन जनपद के विभिन्न सांस्कृतिक केन्द्रों से उत्खनन द्वारा अभिलेखिय साक्ष्य के अध्ययन से यह विदित होता है कि तत्कालीन समाज में गन्धिक, लोहार, सार्थ, सुनार, कपास व्यापारी, रंगरेज आदि सामान्य जातियाँ भी जैन धार्मिक कार्यों में उत्साह के साथ भाग लेती थीं । प्रतिमाओं के पाद - पीठों पर इनकी कलात्मकता का उल्लेख मिलता । इनका विस्तार से वर्णन मूर्तिकला के अध्याय में किया गया है । " शूरसेन जनपद के सास्कृतिक विकास में वहाँ के आर्थिक जीवन का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । क्योंकि शूरसेन जनपद व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। इस नगर में स्वर्ण, रजत, धन-धान्य आदि का क्रय-विक्रय होता था । यहाँ सार्थवाह रहते थे ।
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'पद्यचरित' में वर्णित है कि शूरसेन जनपद में कस्तूरी, सुगन्धित द्रव्य, वस्त्र, गज, अश्व, ऊँट और गाय का व्यापार होता था । कृषि के लिए यह जनपद प्रसिद्ध था । 17
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प्राचीन भारत में शूरसेन जनपद एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था । तक्षशिला से चलकर सकल, स्याल कोट एक महाजनपथ शूरसेन जनपद में आकर दो भागों में विभक्त हो जाता था। एक शाखा कन्नौज, प्रयाग, काशी और पाटलिपुत्र से होते हुए ताम्रलिप्ति को चली जाती थी । यह मार्ग उत्तरापथ कहलता था। दूसरा मार्ग उज्जयिनी होते हुए पश्चिमी समुद्रतट पर स्थित भरुकच्छ (भड़ींच) को जाता था । 18
शूरसेन जनपद से वेरंजा, सोरों, संकिसा, कान्यकुब्ज एवं प्रयाग से होत हुए एक मार्ग उत्तरापथ के मार्ग में मिल जाता था, जहाँ से गंगा पार करके वाराणसी तक मार्ग जाता था । 19
मगध साम्राज्य में कोशल और वज्जि जनपदों के मिल जाने से उत्तर प्रदेश से लेकर कजंगल ( कुरुक्षेत्र) तक का महापथ मगध के अधिकार