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शूरसेन जनपद में जैन वास्तुकला
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उक्त शिलालेख से विदित होता है कि तत्कालीन समाज में जैन धर्म के प्रति अपार श्रद्धा- भक्ति थी। मूर्तिकला की भाँति ही वास्तुकला के क्षेत्र में कुषाण युग में उन्नति हुई।
कुषाण कालीन एक खण्डित शिलापट्ट पर 'विहार' शब्द उत्कीर्ण हैं यह प्रस्तर मथुरा संग्रहालय में दृष्टव्य है। इस प्रकार कला की दृष्टि से देवगढ़ के जैन मन्दिर तथा खजुराहों के जैन मन्दिर" का महत्वपूर्ण स्थान है।
मन्दिर, स्तूप एवं विहार के अतिरिक्त अध्ययन क्षेत्र से जैन वातायनों के उदाहरण भी दृष्टव्य है। एक अक्षत वातायान में चारों कोनों पर वर्गाकार प्रणाली बनाई गई है, केन्द्रीय भाग की जाली में हीरक पंक्तियों का अंकन दृष्टिगोचर होता है। चारों भुजाओं पर चार पंखुड़ियों वाले पुष्प उत्कीर्ण हैं। एक खण्डित जाली में पुष्पों के समूह का अंकन दृष्टव्य है। ___ स्तूप की एक आकृति राष्ट्रीय संग्रहालय में एक खण्डित तोरण शीर्ष पर हैं, यह अधिकांशतः आधे से कुछ कम है। यह किसी मन्दिर का खण्ड है तथा बहुत ही आकर्षक है। इसमें स्तूप की सभी विशेषतायें दृष्टव्य है- जैसे कि नीचे अर्द्धवृत्ताकार शिखर है, एक ऊँचा बेलनाकार शिखर दो वेदिका के मध्य में उत्कीर्ण है।47
उक्त स्तूप की प्राप्ति वर्णित क्षेत्र के कंकाली से हुई तथा कुषाण कालीन है।
स्तूप के सबसे अधिक निकटतम पीठिका के ऊपर स्थापित शिलापट्ट के मध्य भाग में एक कला-पिण्ड है, जो चार- त्रिरत्नों के आधार पर वृत के रूप में उत्कीर्ण है। त्रिरत्नों का ऐसा अंकन आयागपट्ट के अनेक रूपों में दृष्टिगोचर होता है।
वास्तुकला के दृष्टिकोण से स्तूप निर्माण की मान्यता जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म दोनों में समान रूप से रही परन्तु कालान्तर में जैन धर्म ने स्तूप निर्माण की परम्परा का त्याग कर दिया, किन्तु बौद्ध धर्म में स्तूप निर्माण एवं पूजन की प्रथा प्रचलित रही।