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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
चौथी शताब्दी ई. में आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा में जैन आगमों का संकलन करने के लिए एक धर्म परिषद का आयोजन किया गया। जैन धर्म में यह आयोजन माथुरी वाचना' के नाम से प्रसिद्ध है।
इसी समय बल्लभी में नागार्जुन की अध्यक्षता में जैन आगमों को संकलित करने के लिए जैन संगीति आहूत की गई। ये संगीतियां जैन धर्म के प्रचारार्थ एवं जैन साधुओं के संघ को संगठित करने की दृष्टि से बुलाई गई थीं। इन संगीतियों में जैन धर्म के श्रमण एवं श्रमणचर्या के गठन के साथ-साथ जैन धर्म ग्रन्थों की रचना सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं का हल निकालने का प्रयास किया गया
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गुप्त काल में जैन धर्म की स्थिति के विषय में सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उस समय के प्राप्त शिलालेखों में तीन जैन शिलालेख डॉ. हूलर के अनुसार गुप्त युग के हैं। कोटियगण की विद्याधरी शाखा के दलिताचार्य के उपदेश से भट्टिभव की पुत्री और गृहमित्रपालित की पत्नी शामाढ्या ने जिन मूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी। ___ गुप्त राजाओं की विशिष्ट भक्ति विष्णु के प्रति थी। परन्तु धार्मिक सहिष्णुता की परम्परा को स्थापित करते हुए गुप्त शासकों ने जैन एवं बौद्ध धर्म को फलने-फूलने का अवसर दिया। गुप्त युग में सर्वत्र धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रगति हुई। ___ गुप्त शासक रण-कुशल, धर्म-प्राण और कला-प्रेमी होने के साथ ही साथ विद्याओं के संरक्षक तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। उनके प्रोत्साहन से कालिदास, विशाखदत्त और रविकीर्ति जैसे नाटककार एवं कवि; आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे गणितज्ञ एवं ज्योतिर्विद तथा अमरसिंह जैसे कोशकार ने विविध विद्याओं के प्रसार का महत्वपूर्ण कार्य किया था। धार्मिक समन्वय का जो कार्य नाग काल में प्रारम्भ हुआ, गुप्तकाल में उसका अत्यधिक विकास हुआ।