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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
जैन धर्म की विविध व्यवहारिक आवश्यकताओं ने विशेष कार्यों के लिए अपेक्षित भवनों की प्रकृति को भी प्रभावित किया।
जैन कला मुख्यतः धर्मोन्मुख रही, ‘मानसार' ग्रन्थों में जैन प्रतिमाओं तथा भवन - निर्माण के नियमों का कठोरता से पालन करने को कहा गया है। इस प्रकार के नियम ब्राह्मण एवं बौद्ध धर्मों की कला में भी थे। ब्राह्मण, जैन और बौद्ध मन्दिरों में जो विशेष अन्तर दृष्टिगोचर होता है वह स्वभावतः मुख्य मन्दिर में प्रतिष्ठित देवता, पार्श्ववर्ती देवी-देवता तथा सम्बन्धित धर्म की पौराणिक कथाओं के अनुसार मूर्तियों के लक्षण आदि के कारण है।
स्थापत्य पर वातावरण के प्रभाव का यथोचित महत्व समझते हुए हिन्दुओं की अपेक्षा जैनों ने अपने मन्दिरों के निर्माण के लिए सदैव प्राकृतिक स्थलों का ही चुनाव किया।10 ___ ऋग्वेद की अधिकांश ऋचाओं में स्थापत्य एवं प्रतिमाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं इनमें आयसपुर, लौह निर्मित शतगण दुर्ग तथा ईंट-पत्थर लकड़ी का बना शीत-ताप सुरक्षित गृह आदि का वर्णन है।" __ प्राचीन शूरसेन जनपद के आदिकालीन स्थापत्य का सर्वप्रथम उल्लेख वाल्मीकिकृत रामायण में मिलता है। उससे ज्ञात होता है कि श्री राम के शासनकाल से पूर्व असुरराज मधु का शासन इस क्षेत्र पर था और यहाँ के मधुबन में उसकी राजधानी थी।
वाल्मीकि का कथन है कि मधु का राज-भवन चमकदार एवं श्वेत रंग का ऊँचा और भव्य था।
श्री राम के शासनकाल में मधु का पुत्र लवण मधुबन का राजा था। वह महाबली होने के साथ ही साथ क्रूर और अत्याचारी भी था। राम ने उसके विरुद्ध अपने अनुज शत्रुघ्न को एक बड़ी सेना सहित मधुबन भेजा था।
लवण और शत्रुघ्न के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें असुरराज मारा गया। उसके पश्चात् शत्रुघ्न ने मधुबन के एक भाग को स्वच्छ करा कर