________________
शूरसेन जनपद में जैन वास्तुकला
02
हैं। यहाँ धार्मिक सहिष्णुता भारतीय इतिहास में विशेष उपलब्धि कही जा सकती है।
शूरसेन जनपद से अनेक बड़े मार्ग होकर जाते थे। धर्म प्रचार एवं साधारण आवागमन तथा व्यापारिक सुविधा हेतु इनका प्रयोग होता था। एक बड़ा मार्ग शूरसेन जनपद से पद्यावती (ग्वालियर के पास पवाया), देवगढ़ होता हुआ विदिशा जाता था। व्यापारी एवं अन्य यात्री जो इन मार्गों से यात्रा करते थे। इन मार्गों के उपयुक्त स्थानों पर मन्दिरों, धर्मशालाओं का निर्माण कराते थे।
जैन साधु वनों में निवास करते थे और भ्रमण में ही अपना जीवन व्यतीत करते थे। पर्वतों की प्राकृतिक गुफाएँ उनके लिए आश्रम का कार्य करती थीं।
प्रारम्भिक गुफाएँ अलंकरण विहिन थीं, परन्तु कालान्तर में उन्हें मन्दिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। ये गुफा मन्दिर जैन साधुओं के संयमित जीवन तथा उनके स्वेच्छया मृत्यु - वरण का स्मरण कराती है।
वस्तकला का विकास प्रतिमा अर्चना के परिमाणस्वरूप हुआ। बौद्ध ग्रन्थों में उल्लेख है कि वज्जिदेश और वैशाली में अर्हत चैत्यों का अस्तित्व था, जो बुद्ध पूर्व या महावीर स्वामी के पूर्वकाल में विद्यमान थे।'
प्रारम्भिक अवस्था में जैन वस्तुकला में मन्दिरों के साथ-साथ बौद्धों की भाँति स्तूपों के निर्माण की भी परम्परा अनेक शताब्दियों तक चलती रही। ऋग्वेद में ऊपर उठती अग्नि शिखाओं को स्तूप कहा गया है। परवर्ति वैदिक साहित्य के अनुसार यह किसी महापुरुष की स्मृति का सीधा - सादा वास्तु प्रतीक होता था।"
जैन स्थापतय कला ने भारत को स्थापत्य निर्माण में गौरवशाली स्थान प्रदान किया। जैनियों ने अपने तीर्थकरों को स्थापित करने के लिये देश के कोने-कोने में मन्दिर एवं विहारों का निर्माण करवाया तथा प्रतिमा स्थापित किया।