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शूरसेन जनपद में जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र
सोंख का प्राचीन टीला मथुरा से गोवर्धन होकर जाने पर आठ किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। ___सोंख की पुरातात्विक खुदाई से जर्मन विद्वान हर्टल ने प्रथम शती ई. पू. वाली सत्ताइसवीं पर्त से एक पकी मिट्टी का बचांगुल प्राप्त किया था। पाँचों खुली उंगलियों वाले इस पँचांगुल की हथेली पर तीन मांगलिक चिन्ह उत्कीर्ण है, बीच में त्रीरत्न और दोनों ओर स्वास्तिक एवं इन्द्रध्वज है।” ___ पंचागुल को मांगलिक प्रतीक माना गया है जिसकी परम्परा आज भी भारतीय लोक जनमानस में प्रचलित है।
सोंख से एक घड़ा प्राप्त हुआ है जिसे जैन धर्म में मंगल कलश के रूप में प्रसिद्धि मिली हुई है। कलश की ग्रीवा के नीचे पिटार पर दो प्रतीक स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं- दक्षिणावर्ती स्वास्तिक और अधोमुखी श्रीरत्न। यह कलश कुषाणकालीन है। ___ मृत्तिका पँचागुंल द्वारा यह तथ्य प्रकट होता है कि चन्दन अथवा पीठी से पंचागुंल प्रतीक न केवल चित्रित ही किये जाते थे, अपितु मांगलिक अवसरों पर उनके मूर्त स्वरूप का भी प्रयोग किया जाता था।
मिट्टी का यह पँचागुल प्रथम शती ई. पू. का है और इसकी माप 3.1 सेंमी. x 2.1 सेंमी. है। यह किसी मृण्मूर्ति का अंग न होकर यह एक स्वतन्त्र पँचागुल है।
सोंख से प्राप्त इस मृत्तिका पँचागंल के कलात्मक रूप से यह ज्ञात होता है कि इनके निर्माण और उपयोग से उस समय में मथुरा कला के धार्मिक एवं लौकिक दोनों रूप उन्नत अवस्था में थे। चौबिया पाड़ा चौबिया पाड़ा से जिन प्रतिमा की चौकी मिली है जिसमें बने चरणों से आभास होता है कि मूर्ति खड़ी होगी। यह लाल बलुए पत्थर से निर्मित है। चरण चौकी के मध्य में धर्म चक्र बना है जिसके एक ओर बाएं हाथ