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शूरसेन जनपद में जैन मूर्तिकला
भगवान ऋषभनाथ की एक ध्यानस्थ प्रतिमा कंकाली टीले से प्राप्त हुई है।" यह मस्तक विहीन प्रतिमा है।
प्रतिमा के वक्ष स्थल पर श्रीवत्स लाछंन अंकित है । तलुए ऊपर की ओर हैं, जिनपर एक चक्र एवं एक त्रिरत्न चिन्ह अंकित है । एक अनुचर मूलनायक के दायें-बायें अंकित है ।
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प्रतिमा में तीन बालक तीन पुरुष दायीं ओर अंकित हैं तथा बीच में स्तम्भ के ऊपर चक्र बना है । बायीं ओर स्त्री उपासिकाओं को अंकित किया गया है। इसमें उत्कीर्ण लेख ब्राह्मी में है ।
इसी प्रकार की एक अन्य भगवान ऋषभनाथ की ध्यानस्थ चरण-चौकी कंकाली टीले से प्राप्त हुई है । " इसकी लिपि ब्राह्मी है। दायीं हथेली पर चक्र एवं उंगलियों के पोर स्पष्ट हैं दायें तलुए पर चक्र एवं त्रिरत्न अंकित है। पादपीठिका पर चक्र के निकट गणधर, साधु व दो उपासकों का अंकन किया गया है ।
तीसरे तीर्थंकर सम्भवनाथ की अभिलिखित मूर्ति कुषाणकालीन कंकाली से प्राप्त हुई है । यह सबसे प्राचीन प्रतिमा है। 19 लेख में 'सम्भवनाथ' का नाम उत्कीर्ण है । प्रतिमा ध्यानस्थ है। पीठिका पर धर्म चक्र एवं त्रिरत्न का अंकन किया गया है । सम्भवनाथ का लांछन अश्व है
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जैन धर्म के बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत का लांछन कूर्म है। यह सद्व्रत का पालन करने वाले मुनि माने जाते थे । यह भाव इनके नाम का पद बन गया और मुनिसुव्रत इनकी संज्ञा हो गई | 30
जैन परम्परानुसार राम एवं लक्ष्मण मुनि सुव्रत के समकालीन थे। " मुनिसुव्रत की सर्वप्राचीन अभिलिखित प्रतिमा 127 ई. की कंकाली टीले से मिली है, जिस पर कुषाण ब्राह्मी में लेख उत्कीर्ण है। 2
त्रिरत्न अर्थात् सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र का प्रतीक चिन्ह चरण-चौकी के मध्य में अंकित है। इसमें चक्र, शंख, नन्दीपद एवं चक्र का भी अंकन है ।