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शूरसेन जनपद में जैन मूर्तिकला
दायाँ भाग खण्डित है। मूल प्रतिमा के बायीं ओर उड़ते हुए विद्याधर का अंकन किया गया है। वक्ष पर श्रीवत्स का लांछन अंकित है।
जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की सर्वाधिक प्रतिमाएं कुषाणकालीन है। लांछन सर्प है। ____ लाल चित्तीदार बलुए पत्थर पर निर्मित प्रतिमा कंकाली से प्राप्त हुई है। यह 136 ई. की है।
बाद में इस प्रतिमा का सर्पफण प्राप्त हुआ जो मस्तक के साथ है इसे अब इसी प्रतिमा में जोड़ दिया गया है। ___ पाद-पीठिका के मध्य स्तम्भ पर धर्म-चक्र और दायें-बायें एक-एक गणधर एक हाथ से दूसरे हाथ को थामे हुए भूमि पर बैठे हैं।
वक्ष पर श्रीवत्स, दायीं हथेली पर चक्र एवं दोनों तलुवों पर त्रिरत्न व चक्र का अंकन है। पार्श्वनाथ का मुख सातफणों के छत्र के नीचे रहा होगा किन्तु इस समय तीन सर्पफण ही उपलब्ध है। एक सर्पफण पर स्वास्तिक व दो आँखें, दूसरा खण्डित है तथा तीसरे में चक्र व दोनों नेत्र
अंकित है। __ प्रतिमा के पार्श्व में वृक्ष का सजीव अंकन है। वृक्ष की पत्तियों की नसें व गोल पुष्प गुच्छ अति स्वाभाविक बन पड़े हैं।
जैन परम्परा के अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी की प्राचीन प्रतिमा कुषाण काल की है। यह प्रतिमाएं मथुरा कला शैली की अनुपम देन है।
कनिष्क युग की एक अभिलिखित महावीर की प्रतिमा कंकाली टीले से प्राप्त हुई है लेख में ‘वर्धमान' अंकित है। चरण-चौकी को दायें-बायें एक-एक सिंह उठाए हुए हैं।
वर्धमान की कायोत्सर्ग प्रतिमा 98 ई. की है। 2 पाद पीठिका के मध्य भाग में स्तम्भ पर धर्म-चक्र का अंकन किया गया है। श्रावक-श्राविकाओं को माला के साथ अंकित किया गया है।
एक अन्य वर्धमान मूर्ति का अंश 107 ई. की कंकाली से प्राप्त हुई है जो अभिलिखित है।' इस पर एक दम्पत्ति नमन मुद्रा में अंकित है।