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अध्याय चतुर्थ शूरसेन जनपद में जैन मूर्तिकला
जैन प्रतिमाओं का आरम्भ शूरसेन के मथुरा कला शैली के शिल्पकारों द्वारा हुआ। स्थापत्यकला के समान ही मूर्तिकला के क्षेत्र में भी यहाँ के शिल्पकारों एवं जैन आश्रयदाताओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।'
जैन ग्रन्थों तथा बौद्ध ग्रन्थों में बहत्तर तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में चौंसठ प्रकार की कलाओं को उल्लिखित किया गया है।
भारतीय कला के क्षेत्र में जैन धर्म का अपूर्व योगदान है। प्राप्त कलाकृतियों से धर्म के विकास को शूरसेन जनपद में जैन कला के माध्यम से महत्वपूर्ण विकास का बोध होता है। कला को स्थायित्व प्रदान करने के लिए धर्म का आश्रय आवश्यक है। अतः कला एवं धर्म दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं।
उपासक एवं उपासिकाओं के लिए अपने उपदेशक के विषय में जानने की इच्छा होती है कि उस महान व्यक्ति की आकृति कैसी रही होगी। फलस्वरूप इस प्रकार की इच्छा को शान्त करने के लिए प्रारम्भ में प्रतीक स्वरूप चक्र, पद्म, चैत्य, वृक्ष, स्वास्तिक, भद्रासन, भिक्षा पात्रादि के माध्यम से उपदेशक की स्मृति को स्थिर रखने का प्रयास किया गया। कालान्तर में मूर्ति पूजा का अंकन प्रारम्भ हुआ।
जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण प्रतिमाओं का कलात्मक विकास मथुरा कला शैली के अन्तर्गत स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। __ जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं को सर्वप्रथम मथुरा कला शैली के अन्तर्गत ही निर्मित किया गया जिसका प्रारम्भ प्रथम शती ई. में हुआ। इसका