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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
शूरसेन जनपद गहड़वाल वंश के अधीन रहा। सन् 1194 तक मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान के साथ-साथ गहड़वाल वंशी शासक जयचन्द को पराजित कर हिन्दू शाहवंश का अन्त कर दिया । सन् 1206 ई. तक मुस्लिम शासकों ने सम्पूर्ण भारत पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। 109
मथुरा में भयंकर लूट-पाट जारी रही । मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मथुरा की मूर्तियों एवं मन्दिरों को नष्ट कर दिया तथा भारतीय संस्कृति को प्रभावित किया ।
मध्ययुगीन जैन स्थलों में शूरसेन जनपद का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है। यहीं से दिगम्बर- श्वेताम्बर का भेद भी प्रारम्भ हुआ । लखनऊ संग्रहालय में श्वेताम्बर मूर्तियों के दर्शन होते हैं। 10
शूरसेन जनपद से मध्यकालीन छः प्रतिमाएं प्राप्त हुई जिनमें तीन ऋषभदेव की कायोत्सर्ग मुद्रा में है । ""
बटेश्वर से एक तेरहवें जिन विमलनाथ | 12 की प्रतिमा दसवीं शती की मिली है जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है ।
दसवीं शती की दो प्रतिमाएं नेमिनाथ 13 की प्राप्त हुई है जो ध्यानमुद्रा में विराजमान है । बटेश्वर से एक पार्श्वनाथ की मूर्ति दसवीं शती की मिली है ।" "
दसवीं शती की कंकाली टीले से एक जिन चौबीसी मिली है जो ब्राह्मीलिपि में अभिलिखित है । ऋषभदेव मूल में पद्मासन मुद्रा में ध्यानस्थ है | 115
बटेश्वर से बारहवीं शती की एक नेमिनाथ की पंचतीर्थी प्राप्त हुई । वक्षस्थल पर श्रीवत्स अंकित है । 116
उपर्युक्त प्रतिमाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि विदेशी आक्रमणों के बाद भी जैन धर्म साधारण जनता के हृदय में विद्यमान था। जैन धर्म की कलाकृतियां गुप्तोत्तर काल से कम मिलती है, परन्तु