________________
14
शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
का प्रारम्भ भी यहां से हुआ। मथुरा कला के अन्तर्गत ही प्रतिमाओं का अंकन ध्यानमुद्रा में प्रारम्भ हुआ। इससे पूर्व प्राप्त मूर्तियों में जो लोहानीपुर, चौसा की है, उनमें जिन कार्योत्सर्ग- मुद्रा में खड़े हैं। मूर्तियों में लांछनों के साथ-साथ यक्ष-यक्षी युगलों का चित्रण भी सर्वप्रथम शूरसेन जनपद में ही प्रारम्भ हुई। __ शूरसेन जनपद से प्रतिमाओं के साथ-साथ अभिलिखित चरण चौकी, आयागपट्ट एवं अन्य कलाकृतियां भी प्राप्त हुई हैं।
तीर्थंकरों के जीवन दृश्यों, विद्याधरों, सरस्वती, क्षेत्रपाल, जिनों के माता-पिता, अष्ट दिक्पालों, नवग्रहों एवं प्रतिमा निरूपण से सम्बन्धित उल्लेख तथा उनकी अभिव्यक्ति भी सर्वप्रथम शूरसेन जनपद में ही हुई।
जैन शिल्प में एकरसता उत्पन्न करने के लिए स्थापत्य विशाल आयामों को शिल्पगत वैविध्य से संयोजित करने के लिए एवं अन्य धर्मावलम्बियों को आकर्षित करने के लिए अन्य सम्प्रदायों के कतिपय देवों को भी विभिन्न स्थलों पर निरूपित किया गया है।
शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा की एक अम्बिका प्रतिमा में बलराम, कृष्ण, कुबेर एवं गणेश का अंकन किया गया है। मथुरा एवं देवगढ़ की नेमिनाथ प्रतिमा में भी बलराम-कृष्ण का अंकन किया गया है। ___ जटामुकुट से शोभित वृषभवाहना देवी का निरूपण श्वेताम्बर स्थलों पर विशेष लोकप्रिय था। देवी की दो भुजाओं में सर्प एवं त्रिशूल है। देवी का लाक्षणिक स्वरूप पूर्णतः हिन्दू शिवा से प्रभावित है।"
राज्य संग्रहालय लखनऊ की दो अम्बिका मूर्तियों में देवी के हाथों में दर्पण, त्रिशूल, घण्टा और पुस्तक प्रदर्शित है जिस पर उमा एवं शिव का प्रभाव है।
शूरसेन का महत्व इस दृष्टिकोण से भी है कि यह एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था। कुषाणकाल में जो राजमार्ग पाटलिपुत्र से प्रारम्भ होता था वह मथुरा से होकर पुरूषपुर तक जाता था। इसलिए यह नगर उस काल में भारतीय राज्यों के अतिरिक्त विदेशों से भी अपना