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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
एण्टीक्विटीज ऑव मथुरा, डॉ. जगदीश चन्द्र जैन की पुस्तक जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज तथा अमलानन्द घोष की जैन कला एवं स्थापत्य तीनों भाग भी विशेष उल्लेखनीय है ।
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श्री अलेक्जेण्डर कनिंघम की पुस्तक ऐन्शयेंट ज्योग्राफी ऑव इण्डिया, श्री नाथूराम प्रेमी की पुस्तक जैन साहित्य और इतिहास, श्री मोहन लाल मेहता का जैन साहित्य का वृहद् इतिहास के पांचों भाग विशेष महत्वपूर्ण है एवं जैन धर्म-दर्शन विशेष उल्लेखनीय है।
डॉ. बिमलचरण लाहा की पुस्तक प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल एवं डॉ. विजयेन्द्र कुमार माथुर की पुस्तक ऐतिहासिक स्थानावली, डॉ. झिनकू यादव की पुस्तक जैन धर्म की ऐतिहासिक रूपरेखा, समराइच्चकहा : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पुस्तकों से महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है ।
डॉ. मधुलिका वाजपेयी की पुस्तक मध्यप्रदेश में जैन धर्म का विकास विशेष महत्वपूर्ण है । यह पुस्तक शोध प्रबन्ध को दिशा प्रदान करने में महत्वपूर्ण आधार सिद्ध हुई ।
उपर्युक्त ग्रन्थों से शूरसेन जनपद की जैन कला, साहित्य, दर्शन एवं भौगोलिक सीमा, इतिहास एवं संस्कृति के इतिहास का ज्ञान प्राप्त करने प्रचुर सामग्री उपलब्ध है जो बहुत मूल्यवान है ।
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इतिहास लेखन के लिए साहित्यिक सामग्री के अतिरिक्त पुरातात्विक सामग्री का विशेष महत्वपूर्ण स्थान है । यह सामग्री प्राचीन मूर्तियों, चित्रों, अभिलेखों, सिक्कों तथा इमारती वस्तुओं के रूप में उपलब्ध है। शूरसेन जनपद में ई. पू. प्रथम शती से लेकर बारहवीं शताब्दी तक के जो अवशेष मिले हैं उनसे मौर्य युग से लेकर गहड़वाल वंश तक इतिहास एवं संस्कृति जानने में सहायता प्राप्त होती है । "
ग्रन्थों में निरूपित विवरणों के वस्तुगत परीक्षण की दृष्टि से पुरातात्विक स्थलों की सामग्री का विशेष महत्व है, क्योंकि मूर्त धरोहर, कलात्मक एवं मूर्तिवैज्ञानिक वृत्तियों के स्पष्ट साक्षी होते हैं ।