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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
जैन धर्म की प्रचलित मान्यता के अनुसार महावीर स्वामी का विहार शूरसेन जनपद में हुआ था । उस समय यहां का राजा उदितोदय
था । "
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भगवान महावीर ने अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक राजवंशों का सहयोग प्राप्त किया । लिच्छिवि नरेश चेटक स्वयं महावीर स्वामी का शिष्य था । उत्तराध्ययन सूत्र' से ज्ञात होता है कि मगध नरेश बिंबिसार, महावीर का समकालीन था । उसकी दस रानियां जैन धर्म में आस्था रखती थीं ।
ज्ञातधर्मकथा' तथा अनुत्तरोपपासिक दशांग' आगम ग्रन्थों से भी ज्ञात होता है कि बिंबिसार का पुत्र अजातशत्रु चम्पा नरेश दधिवाहन तथा उसकी पुत्री चन्दना सभी महावीर स्वामी के शिष्य थे ।
महावीर स्वामी के संघ में चन्दना नामक श्रमणी की अध्यक्षता में अधिक संख्या में भिक्षुणियां भी सम्मिलित थीं ।" सम्पन्न परिवारों के श्रावक एवं श्राविकाएं भी महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित धर्म में आस्था रखते थे ।
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समवायांग" में महावीर के ग्यारह गणधरों का उल्लेख मिलता है इन गणधरों पर ही संघ के संचालन का सम्पूर्ण दायित्व था । इनके नाम इस प्रकार हैं- इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मंडित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचल भ्राता, मेतार्य और श्री प्रभास । ये सभी गृहस्थ जीवन में विभिन्न क्षेत्रों के निवासी ब्राह्मण थे तथा भगवान महावीर के उपदेश से प्रभावित होकर उनका शिष्यत्व ग्रहण कर लिया था । 2
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महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् जैन धर्म मुख्य रूप से दो भागों दिगम्बर परम्परा एवं श्वेताम्बर परम्परा में बंट गया था। सुधर्मा और जम्बू स्वामी के पश्चात् भद्रबाहु तीसरी शताब्दी ई. पू. में हुए । चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल में बारह वर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा जिसमें अकाल की स्थिति आ गई। फलस्वरूप भद्रबाहु अपने श्रमण संघ को लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ दक्षिण में मैसूर के श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर चले गये ।