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शूरसेन जनपद में जैन धर्म का विकास
उत्तर भारत का प्रमुख मार्ग ताम्रलिप्ति से चम्पा, वाराणसी, कौशाम्बी, शूरसेन, सकल, तक्षशिला होकर पुष्कलावती पहुंचता था। पुस्कलावती से खैबर के दर्रे, काबुल की घाटी, हिन्दु कुश को पार कर बैक्ट्रिया पहुंचता था। शूरसेन की राजधानी से एक मार्ग मालवा की राजधानी धार तक जाता था।
कुषाण सम्राटों के शासन काल में शूरसेन जनपद में विद्या-कला और उद्योग वाणिज्य के सभी अंगों ने प्रगति की थी। कुषाण काल में मूर्तिकला की विशेष उन्नति हुई। कुषाण शासक बौद्ध धर्मावलम्बी होते हुए भी उन्होंने जैन एवं भागवत धर्म के प्रचार-प्रसार में सहयोग दिया। फलस्वरूप जैन मूर्ति विज्ञान का विकास हुआ।
कुषाणकाल में जैन धर्मानुयायियों ने जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का निर्माण कराकर दान में दिया। प्रमुख मूर्तियों में ऋषभनाथ, शान्तिनाथ', अरिष्टनेमि'', पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी आदि । कुषाण कालीन सरस्वती की मूर्ति भी बहुत प्रसिद्ध है।” सरस्वती की प्रतिमा ब्राह्मण एवं जैन धर्म दोनों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। यह प्रतिमा देवियों की प्राप्त सभी प्रतिमाओं में सर्वप्राचीन है। सरस्वती की प्रतिमा से यह सिद्ध होता है कि कुषाण काल में जैन धर्म अपनी सर्वश्रेष्ठ स्थिति में था। __कुषाण काल में जैन भक्तों ने अनेक आयागपट्ट भी निर्मित कराये। यह आयागपट्ट एक पूजार्थक शिलापट्ट होते थे। ये आयागपट्ट अलंकृत है जिस पर स्वास्तिक, श्रीवत्स, मत्स्य युगल और पुरुष एवं स्त्री भक्तों का अंकन किया गया है। ___ कुषाण कालीन एक आयागपट्ट' की सबसे बड़ी विशेषता है कि इसमें स्तूप वास्तु का पूरा नक्शा उत्कीर्ण है। स्तूप पर एक लेख उत्कीर्ण है जिसके अनुसार गणिका लवणशोभिका की पुत्री गणिका वसु ने सभा भवन, देविकुल, प्याऊ और शिलापट्ट की स्थापना की। इसमें अर्हत वर्धमान को अभिवादन किया गया है।