Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 10
________________ बनी आत्मा भयमुक्त बनने के लिए अनेक की शरणप्राप्ति हेतु दौड़-धूप करती है। किन्तु अफसोस ! कोई भी आत्मा उसे सम्पूर्ण भयमुक्त नहीं कर सकती क्योंकि शरणदाता स्वयं ही अशरण होता है । अशरगों से उभरती हुई इस दुनिया में संसार के विवध भयों से भयभीत बनी आत्मा को एकमात्र जिनवचन ही शरण दे सकते हैं, उनकी शरण में गई हुई आत्मा संसार के समस्त भयों से मुक्त बनती है । इस प्रकार संसार के विचित्र सम्बन्धों से संसार भावना, 'कर्म के उदय को प्रात्मा अकेली ही सहन करती हैं, उसमें दूसरा कोई भागीदार नहीं बनता है। इस प्रकार एकत्व भावना, 'मैं अकेला हूँ, मैं अपने स्वजन/परिवार से भी भिन्न हूँ' इस प्रकार अन्यत्व भावना, पवित्र को अपवित्र, शुद्ध को अशुद्ध और निर्मल को मलिन बनाने वाले शरीर को देखकर अशुचि भावना आदि से आत्मा को भावित कर सकते हैं। किस कारण से आत्मा कर्म का बन्ध करती है ? किन हेतुओं से उन कर्मों का आगमन रुक सकता है ? और किन कारणों से आत्मा पर लगे कर्म से अलग हो सकते हैं ? इत्यादि चिंतनपूर्वक क्रमशः आस्रव भावना, संवर भावना और निर्जरा भावना से अपनी आत्मा को भावित कर सकते हैं। कर्म को निर्जरा जिससे होती है, उस धर्म के प्रभाव का विचार करना धर्मस्वरूप भावना है। धर्म के प्रभाव से प्रात्मा जहाँ परिभ्रमण करती है, उस चौदह राजलोक लंबे लोक की विचारणा करना, लोकस्वरूप भावना है और जिसके बिना अनन्त आत्माएँ संसार में परिभ्रमण करती हैं उस सम्यग्दर्शन की दुर्लभता का विचार करना, बोधिदुर्लभ भावना है, ये हुई बारह भावनाएँ। इसी प्रकार शेष चार भावनाओं के अन्तर्गत सभी जीवों को ( ८ )

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