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सरस्वती
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[भाग ३८
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विषय है । इस पर प्रकाश डालने के पूर्व सरस्वती कहाँ से में समुद्र नहीं था। कच्छ की मिट्टी की परीक्षा-द्वारा विदित होकर बहती थी, यह निश्चित कर लेना चाहिए। होता है कि वह समुद्र की बालू-द्वारा नहीं बनी है, बरन सरस्वती के प्रवाह की खोज
नदियों की मिट्टी-द्वारा बनी है. अतः सरस्वती को : ऋग्वेद-द्वारा सरस्वती की ठीक स्थिति का पता नहीं पश्चिमाब्धि अर्थात् अरब सागर में गिरने के लिए और लगता। वह यमुना से पश्चिम की ओर बहनेवाली आगे जाना पड़ता होगा । रनकच्छ के दक्षिण में सुराष्ट्र नदी बताई गई है। आज भी यमुना से पश्चिम की अोर अर्थात् काठियावाड़ है । इस प्रदेश के भूगर्भ-शास्त्र-सम्बन्धी सरस्वती नाम की एक छोटी-सी नदी बहती है, जो शिवा- अन्वेषण से पता लगा है कि आज से १००० वर्ष पूर्व लिक पर्वतमाला से निकल कर पटियाले के रेगिस्तान में सुराष्ट्र और गुजराज की सीमा के बीच से एक बड़ी नदी जाकर सूख जाती है। कुरुक्षेत्र इसी सरस्वती के तट पर प्रवाहित होती थी जो रनकच्छ की ओर से आती हुई स्थित है।
खम्भात की खाड़ी में गिरती थी। इसका प्रवाह सुराष्ट्र को ..'अवेस्ता' तथा एक ईरानी शिलालेख के अनुसार सिन्धु- गुजरात से अलग करता था और इस प्रकार सुराष्ट्र एक नदी के पूर्व की अोर का प्रदेश 'हरहती' कहलाता था। इससे बड़ा द्वीप था। कहते हैं कि यह सिन्धु-नदी का प्रवाह ज्ञात होता है कि सिन्धु से पूर्व की ओर सरस्वती बहती था । इस नदी का शुष्क प्रवाह-मार्ग अब तक पाया जाता थी। मनु के अनुसार सिन्धु और सरस्वती के बीच का है। जब इस प्रदेश में किसी वर्ष अत्यधिक वर्षा होती है यह प्रदेश 'ब्रह्मावत' और 'देवयोनिवृत्त' कहलाता था। तब पानी इसके प्रवाह में बह चलता है और सुराष्ट्र फिर अमरकोष में सरस्वती को 'पश्चिमाब्धिगामिनी' कहा है। एक द्वीप बन जाता है । सन् १९२७ की भीषण वर्षा में इससे ज्ञात होता है कि यह 'पश्चिमाब्धि' अर्थात् वर्तमान दो मास तक यही दशा रही थी। रेल-मार्ग बन्द हो गया अरब-सागर से गिरती थी । उत्तर राजपूताने की दन्त- था और समुद्र-मार्ग-द्वारा आवागमन होता था। इस कथाओं तथा मध्यकाल की मुसलमानी तवारीखों द्वारा प्राचीन नदी का प्रवाह इतना प्रबल था कि इसके कारर ज्ञात होता है कि उत्तर-राजपूताने में मध्यकाल में एक सुराष्ट्र और गुजरात के बीच खम्भात से इस अोर एक 'हाकड़ा' नाम की नदी बहती थी, जिसका शुष्क प्रवाह- झील बन गई थी, जो 'नल-सरोवर' कहलाती थी। यह
खाई देता है। सातवीं सदी से अरबों सूखी हुई अवस्था में अब तक विद्यमान है और वर्षा के के सिन्ध-श्रागमन के विवरण से पता चलता है कि उस दिनों में भर जाती है । इसके आस-पास का प्रदेश 'नलसमय सिन्धु नदी के पूर्व में 'मिहिरान' नामक एक बहत काठा' कहलाता है। इस प्रकार सरस्वती रनकच्छ (जो बड़ी नदी बहती थी। 'इम्पीरियल गेज़ेटियर अाफ़ इंडिया' उस समय उपजाऊ भू-प्रदेश था) को पार करती हुई की पहली जिल्द के पृष्ठ ३० पर लिखा है कि “सिन्धु- गुजरात (गुर्जर-राष्ट्र) और सुराष्ट्र (युजाति का राष्ट्र) के नदी के पूर्व की ओर उन रेगिस्तानों में जो किसी समय बीच से प्रवाहित होती हुई खम्भात की खाड़ी में, जो उपजाऊ भूमि थे, एक प्राचीन नदी का शुष्क प्रवाह-मार्ग अरब-सागर का ही एक भाग है, मिल जाती थी। दृष्टिगोचर होता है जो रनकच्छ' में जाकर गिरती महाभारत, शल्य-पर्व, में कृष्ण के बड़े भाई बलदेव की थी।" यही प्राचीन मिहिरान का प्रवाह-मार्ग था जो प्रतिस्रोतसरस्वती-यात्रा का . भौगोलिक विवरण पाया रनकच्छ में गिरती थी । वास्तव में हाकड़ा और मिहिरान जाता है । बलदेव ने यह यात्रा सुराष्ट्र में प्रभास (यहाँ का प्रवाह ही सरस्वती का प्रवाह था। कुरुक्षेत्र की सोमनाथ का इतिहास-प्रसिद्ध मंदिर था) से प्रारम्भ की सरस्वती पटियाले के ठीक उस रेगिस्तान में जाकर सूख थी। इस यात्रा में जो जो स्थान मार्ग में आये थे उनका जाती है जिसमें होकर हाकड़ा बहती थी । इससे जान विवरण महाभारत में दिया हुआ है । बलदेव प्रभास से
सरस्वती करुक्षेत्र के पास से गुजरती हई. चलकर सुराष्ट रनकच्छवाला भ-प्रदेश, पश्चिमी और
राजपुताना में बहती हई, रनकच्छ में उत्तरी राजपूताने को पार करते हुए ४२ दिन में कुरुक्षेत्र जाकर गिरती थी। परन्तु रनकच्छ के स्थान में प्राचीन काल पहुँचे थे। इसके पश्चात वे हिमालय पर स्थित लक्षप्रस्रवण
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