Book Title: Sanuwad Vyavharbhasya
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ (२६) निर्देश। का निर्देश। कथा। २१५८-२१६४. उपस्थापना पहले पीछे किसको ? २३१३,२३१४. नव, डहरिका तथा तरुणी की व्याख्या और २१६५-२१७६. आचार्य के लिए आभाव्य शिष्य कौन ? प्रवर्तिनी बनने की अर्हता। २१७७-२१८५. दो के विहरण की मर्यादा तथा प्रायश्चित्त आदि का | २३१५-२३१८. अन्यगच्छ से समागत साध्वी की विज्ञप्ति। विवरण। २३१९-२३२१. प्रकल्प अध्ययन की विस्मृति करने वाले को २१८६-२१८९. रत्नाधिक का शैक्ष के प्रति कर्त्तव्य। यावज्जीवन गण न सौंपने का निर्देश तथा प्रकल्प २१९०-२२०६. दो संख्याक भिक्षु, गणावच्छेदक आदि विषयक की विस्मृति के कारणों की खोज। वर्णन। २३२२-२३२६. विद्यानाश में अजापालक, योध आदि के अनेक २२०७-२२१५. आभवद् व्यवहार के भेद तथा विवरण। दृष्टान्त। २२१६-२२२९. अवग्रह के तीन भेदों का विवरण। २३२७,२३२८. प्रमत्त साध्वी को गण देने, न देने का विमर्श। २२३०-२१४२. निर्गमन की चतुर्भगी और उसका विवरण। २३२९. प्रमत्त मुनि को गण देने, न देने को विमर्श। २२४३-२२५४. असंस्तरण में साधुओं की चतुर्भगी आदि का वर्णन। २३३०,२३३१. मथुरा नगरी में क्षपक का वृत्तान्त । २२५५. काल के आधार पर अवग्रह के तीन भेद। २३३२,२३३३. प्रकल्पाध्ययन नष्ट होने पर स्थविर और आचार्य २२५६,२२५७. वृद्धावास का निर्वचन तथा कालमान। की कर्त्तव्यता। २२५८-२२६३. वृद्धावास में रहने के हेतुओं का निर्देश। २३३४. सूत्रार्थधारक ही गणधारी। २२६४-२२६८. जंघाबल की क्षीणता का अवबोध । २३३५. कृतयोगी के सूत्र-नाश का कारण। २२६९-२२७२. स्थविर का क्षेत्र और काल से अपराक्रम जानने का | २३३६. गण को स्वयं धारण करने का विवेक। २३३७. कृतिकर्म का विधान और निधान का दृष्टान्त। २२७३-२२७५. गच्छवास को सहयोग देने की विधि। २३३८,२३३९. गर्व से कृतिकर्म न करने पर प्रायश्चित्त। २२७६,२२७७. वृद्धों के प्रति चतुर्विध यतना। २३४०-२३४२. अविधि से कृतिकर्म करने पर प्रायश्चित्त। २२७८-२२८२. वृद्धावास के प्रति कालगत यतना। २३४३-२३४५. कृतिकर्म की विधि। २२८३-२२८८. वृद्धावास की वसति एवं संस्तारक यतना का २३४६,२३४७. स्थविरों के द्वारा कृतिकर्म करने से तरुणों को निर्देश। प्रेरणा। २२८९-२२९०. ग्लानत्व, असहायता तथा दौर्बल्य के कारण होने | २३४८. आलोचना किसके पास ? वाला वृद्धावास। २३४९-२३५५. संभोज (पारस्परिक व्यवहार) के छह प्रकार तथा २२९१. अनशन-प्रतिपन्न की निश्रा में प्रतिचारक के रहने विवरण। का कालमान। २३५६-२३६०. सांभोजिक एवं असांभोजिक का विभाग कब ? २२९२-२२९७. सूत्रार्थ के निष्पादक की वृद्धावास में रहने की काल- २३६१-२३६४. आलोचना-विधि तथा दोष। मर्यादा। २३६५. आर्यरक्षित तक आगमव्यवहारी अतः साध्वियों को एक क्षेत्र में रहने के कारणों का निर्देश। छेदसूत्र की वाचन की परम्परा। २२९९. संलेखना-प्रतिपन्न के साथ तरुण साधु के रहने | २३६६. आगमव्यवहारी के अभाव में साध्वियों द्वारा की काल-मर्यादा। प्रायश्चित्तदान-विधि। २३००-२३०३. अवग्रह के तीन प्रकार एवं उनके कल्प-अकल्प २३६७-२३७०. साध्वियों का श्रमणों के पास तथा श्रमणों का की काल मर्यादा। साध्वियों के पास प्रायश्चित्त लेने का विधान। २३०४. साध्वियों की विहार संबंधी मर्यादा। २३७३-२३७८. साध्वी का श्रमणों के पास आलोचना करने की २३०५,२३०६. ऋतुबद्धकाल में सात तथा वर्षाकाल में नौ साध्वियों विधि तथा दृष्टराग की चिकित्सा। के विहार का निर्देश एवं उसके कारण। २३७९-२३८५. सांभोजिक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की पारस्परिक सेवा २३०७-२३११. प्रवर्तिनी के कालगत होने पर आचार्य के समीप कब? कैसे? जाने की परम्परा। २३८६-२३९१. ग्लान श्रमण के वैयावृत्त्य करने वाली आर्यिका की २३१२. साध्वियों की प्रमादबहुलता एवं अस्थिरता की योग्यता की बिन्दु। २२९८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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