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. शौनक शाखा का संस्करण, संपादन और प्रकाशन (सायणभाष्य सहित) सन 1856 में राथ और व्हिटनी इन दो पाश्चात्य पंडितों ने किया। ग्रिफिथ ने अथर्ववेद का पद्यानुवाद प्रकाशित किया, जिसकी प्रस्तावना में वेदविषयक भरपूर जानकारी उन्होंने दी है।
अथर्ववेद से संबंधित अवान्तर साहित्य में गोपथ ब्राह्मण, कौषीतकी ब्राह्मणारण्यक, वैतान श्रौतसूत्र, कौशिक्य गृह्यसूत्र, खादिर गृह्यसूत्र, पैठीनसी धर्मसूत्र और श्रीशंकराचार्य के मतानुसार प्रश्न, मुण्ड, मांडूक्य तथा नृसिंहतापिनी इन चार उपनिषदों का अन्तर्भाव होता है। प्रश्नोपनिषद पैप्पलाद शाखीय और मुण्ड-माण्डूक्य शौनक शाखीय हैं। मुक्तकोपनिषद में 13 अथर्वण उपनिषदों के नाम दिए हैं। उनके अतिरिक्त कौषीतकी गृह्यसूत्र, गोभिल गृह्यसूत्र, दैवतसंहिता, दैवत षडविंश ब्राह्मण, द्राह्यायण गृह्य सूत्रवृत्ति इत्यादि ग्रंथ संपदा आथर्वण वाङ्मय में अन्तर्भूत होती है।
अथर्ववेद की 14 शाखोपशाखाओं में पिप्पलाद और शौनक प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त चारणविद्या' नामक शाखा के चार भेद माने गए हैं। नरहरि व्यंकटेश शास्त्री कृत चतुर्वेदशाखानिर्णय नामक ग्रंथ में, वेदों की शाखाओं एवं उपशाखाओं के विषय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
वेदविस्तार मत्स्यपुराण में कहा है कि "एक आसीत् यजुर्वेदः" याने प्रावंभ में केवल एकमात्र यजुर्वेद था। वायु और विष्णु पुराण में भी यही कहा है। भगवान व्यास ने यज्ञविधि की व्यवस्थानुसार चार संहिताएं तैयार की और पैल को ऋग्वेद, वैशंपायन को यजुर्वेद, जैमिनि को सामवेद एवं सुमंतु को अथर्ववेद की संहिता पढ़ा कर उन्हें अपने अपने शिष्य प्रशिष्यों द्वारा वेद का सर्वत्र प्रचार करने का आदेश दिया।
विविध प्रकार के यज्ञों के विधि-विधानों की ठीक व्यवस्था के लिए ब्राह्मण ग्रंथों की निर्मिति का कार्य भी भगवान वेद व्यास ने ही किया। उनके द्वारा जिस शिष्यपरंपरा का विस्तार हुआ उनके कारण वेदों की अनेक शाखा-प्रशाखाओं का विस्तार हआ, जिसका विस्तारपूर्वक वर्णन अनेक पुराणों में तथा भागवत और महाभारत के शांतिपर्व (अध्याय 342) में मिलता है। तथापि इस वेदविस्तार की व्यवस्थित जानकारी के लिए चरणव्यूह नामक तीन ग्रंथ प्रसिद्ध हैं : (1) शौनक कृत- इसपर काशी-निवासी महीदास ने सन 1556 में भाष्य लिखा। (2) कात्यायन कृत- इसपर योगेश्वर उपनाम के त्र्यंबक शास्त्री नामक विद्वान ने 17 वीं शताब्दी में टीका लिखी। (3) व्यास कृत।
दशग्रंथ प्राचीन परंपरा के अनुसार वैदिक वाङ्मय के अध्येताओं में “दशग्रंथी विद्वान" को बड़ी मान्यता थी। जिस वैदिक छात्रने, (1) संहिता, (2) ब्राह्मण, (3) पदक्रम, (4) आरण्यक, (5) शिक्षा, (6) छंद, (7) ज्योतिष, (8) निघंटु, (9) निरूक्त और (10) अष्टाध्यायी, इन दस ग्रंथों का पाङ्क्त अध्ययन किया हो उसे दशग्रंथी विद्वान कहते हैं।
१ आरण्यक वाङ्मय वैदिक वाङ्मय का संबंध जिस वैदिक धर्म से है, उसके कर्मकाण्ड और ज्ञानकांड नामक दो विभाग हैं। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत नानाविध यज्ञ-यागों का विधान किया है, जिसका सविस्तर विवेचन ब्राह्मण ग्रंथों में मिलता है। इस ब्राह्मण वाङ्मय के गद्यपद्यात्मक परिशिष्ट विभाग को 'आरण्यक' संज्ञा दी है। इस विभाग का अध्ययन अरण्य में रह कर करने की परिपाटी थी। उसी कारण इस वाङ्मय को 'आरण्यक' संज्ञा प्राप्त हुई, (अरण्य एवं पाठ्यत्वात् आरण्यकमितीर्यते) ऐसी भी एक उपपत्ति बताई जाती है।
यज्ञ-यागों की गूढता और वर्णाश्रमों के धर्माचार यही है आरण्यकों के प्रतिपाद्य विषय। कुछ उपनिषदों का भी अन्तर्भाव आरण्यकों में होता है। इस कारण आरण्यक और उपनिषदों की निश्चित सीमारेषा बताना असंभव सा है।
जिस प्रकार मंत्र और ब्राह्मण इन दोनों को मिलाकर "वेद" कहते हैं, उसी प्रकार आरण्यक और उपनिषद को "वेदान्त" कहते हैं, क्यों कि यह वाङ्मय वेद का अन्तिम भाग है। जिस प्रकार विशिष्ट ब्राह्मण ग्रंथों का विशिष्ट वैदिक सम्प्रदाय से संबंध है, उसी प्रकार, आरण्यकों एवं उपनिषदों का भी वैदिक संप्रदायों से संबंध होता है (देखिए-परिशिष्ट)
ब्राह्मण- आरण्यक और उपनिषद इनका परस्पर संबंध निम्न प्रकार से है :(1) ऋग्वेद ऐतरेय ब्राह्मण से, ऐतरेय आरण्यक और ऐतरेय उपनिषद संबंधित है। (2) ऋग्वेद शांखायन (अर्थात कौषीतकी) ब्राह्मण से, कौषीतकी आरण्यक और कौषीतकी उपनिषद संबंधित है।
(3) कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय ब्राह्मण से, तैत्तिरीय आरण्यक और तैत्तिरीय उपनिषद संबंधित है। महानारायण उपनिषद भी तैत्तिरीय आरण्यक से संबंधित है।
(4) शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण के 14 वें मंडल का प्रारंभिक तृतीयांश भाग “आरण्यक" है और बाकी दो तृतीयांश भागों को "बृहदारण्यक उपनिषद" कहते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद सभी उपनिषदों में बडा और अनेक दृष्टि से परिपूर्ण
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 21
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