________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
सामान्य तर्क सर्वत्र रूढ है। प्रस्तुत भाष्यकार ने उस तर्क का भी खण्डन मार्मिकता से किया है। भाष्यकार कहते है- अतीन्द्रिय विषयों पर सहस्रावधि शाखाओं की इतना महान ग्रन्थराशि व्यक्त करना हम जैसे मानवों का काम नहीं है। अर्थात् वह ईश्वर का ही काम हो सकता है। (वेदस्तावत् पौरुषेयः वाक्यत्वात् इति साधितम्। न च अस्मदाद्यः तेषां सहस्रशाखाच्छिन्नानां वक्तारः सम्भाव्यन्ते अतीन्द्रियार्थत्वात्। न च अतीन्द्रियार्थदर्शिनः अस्मदादयः) ।
वैशेषिक दार्शनिकों ने वेदों का अपौरुषेयत्व प्रतिपादन करने के लिए अनेकविद्ध तर्क प्रस्तुत किए हैं। न्यायदर्शनकार गौतममुनि “मन्त्रायुर्वेदप्रमाण्यवत् च तत्प्रामाण्यम् आप्तप्रामाण्यात्", इस सूत्र के भाष्य में कहते हैं" वेदों के अर्थ के जो द्रष्टा एवं प्रवक्ता हैं, वे ही आयुर्वेदादि के प्रवक्ता हैं। अतः आयुर्वेदादि शास्त्रों को हम जैसे प्रमाणभूत मानते हैं, वैसे ही वेदों को भी प्रमाण मानना चाहिये। (ये एव आप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः प्रवक्तारश्च ते एव आयुर्वेद-प्रभृत्तीनाम् इति आयुर्वेद-प्रामाण्यवत् वेदप्रामाण्यम् अनुमातव्यम्।)
सांख्य दर्शन के प्रवर्तक भगवान कपिल ऋषि वेदों के नित्यत्व का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं, "शब्द और अर्थ का संबंध नित्य है, इस लिए वेदरूप शब्दराशि नित्य ही होना चाहिए।" इस विधान पर आक्षेपक कहते हैं, "तास्मात् यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे"। इस वेदवचन के अनुसार वेद यजनीय (यज्ञ) ईश्वर से उत्पन्न हुए। इस कारण वे नित्य नहीं हो सकते क्यों कि उत्पन्न होने वाला प्रत्येक पदार्थ घटपटादि के समान अनित्य ही होता है- (न नित्यत्वं वेदानां कार्यत्वश्रुतेः (सांख्यसूत्र-4-45)।
इस युक्तिवाद में वेदों के नित्यत्व का खंडन करने वाले ने भी वेदों का ईश्वरकर्तृकत्व मान्य किया है।
वेद अगर घटपटादि पदार्थों के समान उत्पन्न हुए हैं, तो उनका अपौरुषेयत्व अर्थात् ईश्वरकर्तृकत्व क्यों माना जाये। यह भी प्रश्न उपस्थित किया गया। उस का समाधान करते हुए सांख्यदर्शनकार कहते हैं कि वेद पौरुषेय हो ही नहीं सकते, क्यों कि सृष्टि के प्रारंभ में, ऐसा कोई पुरुष अस्तित्व में ही नहीं था जो वेदों की रचना कर सके- (न पौरुषेयत्वं, तत्कर्तुः) वेदों के पौरुषेयत्व का खंडन करते हुए, “सृष्टिनिर्मिति के अवसर पर परमात्मा की स्वाभाविक शक्ति से वेदों का प्रादुर्भाव होता है अतः वे "स्वतःप्रमाण" हैं- (नित्यशक्याभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम्) इस युक्तिवाद से वेदों का अपौरुषेयत्व सांख्य दर्शन में प्रतिपादित किया हुआ है।
इस प्रकार बुद्धकाल के पूर्व काल में ही वेदों का अपौरुषेयत्व, नित्यत्व, स्वतःप्रामाण्य इत्यादि विषयों पर बड़े मार्मिक विवाद चलते आए हैं। सभी आस्तिक दर्शनकारों ने अपने सूत्रों तभा भाष्यों द्वारा, वेदविरोधी युक्तिवादों का खंडन करते हुए, अपनी विचार शक्ति का परिचय दिया है। उनके सिध्दान्तों का तथा दार्शनिकों के मार्मिक युक्तिवादों का ठीक आकलन किए बिना, प्राचीन भारतीयों का वेदविषयक दृष्टिकोण ध्यान में आना संभव नहीं है। अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने में दार्शनिक विद्वानों ने जो अद्भुत बुद्धिकौशल्य व्यक्त किया है, उसकी भूरि भूरि प्रशंसा अभारतीय विद्वानों ने भी की है। इस संबंध में प्रसिद्ध यूरोपीय पंडित म्यूर कहते है- "अर्थात् इन दार्शनिकों के वाद विवाद जो पढ़ता है उसे उनके युक्तिवाद की तीक्ष्णता, तकों की निर्दोषता और प्रासंगिक उचित दृष्टान्तों की मौलिकता तथा सजीवता, इन की ठीक कल्पना आए बिना नहीं रहती।"
- वेदों का शब्दक्रम वेदों का अपौरुषेयत्व, नित्यत्व एवं स्वतःप्रामाण्य, इन सिद्धान्तों का अपने प्रखर तकों एवं युक्तवादों से प्रस्थापित करने वाले परंपरावादी वैदिक पंडितों का और एक आग्रह है कि, वेद-मंत्रों के अक्षरों का परंपरागत जो क्रम है, वह सर्वथा अपरिवर्तनीय है। उसके एक भी अक्षर, वर्ण या मात्रा में भी लेशमात्र परिवर्तन करने पर वह मंत्र "वैदिक" नहीं रहेगा। "अग्निमीळे पुरोहितम्" इस मंत्र का “ईळे अग्निं पुरोहितम्" इस प्रकार पाठान्तर करने से अर्थहानि भले ही न हो, परंतु उस मंत्र के वैदिकत्व की हानि अवश्य होती है। वैदिक वाक्यों और अवैदिक वाक्यों में यही महत्त्वपूर्ण भेद है। "पात्रम् आहर" इस लौकिक वाक्य की रचना "आहर पात्रम्"- इस प्रकार उलटी करने पर भी कोई दोष नहीं माना जाता। परंतु वैदिक वाक्य में इस प्रकार से परिवर्तन करने से उसमें मंत्रत्व नहीं रहता। इसका साम्प्रदायिक कारण यह माना गया है कि, वेद नित्य होने के कारण, उनके शब्दों का क्रम प्रत्येक कल्प में एकरूप ही रहता है। प्राचीन कल्पों के विशिष्ट क्रम की शब्दराशि, कल्पान्तरों के पश्चात् मंत्रद्रष्टा के हृदय में उसी अनुक्रम से प्रकट होती है। नए कल्पों के ऋषि नूतन वेदों का निर्माण नहीं करते। वास्तव में ऋषि वेदमंत्रों के कर्ता या निर्माता होते ही नहीं। इसी कारण वेदों का अपौरुषेयत्व सम्प्रदायानुसार माना गया है। इस प्रकार वेदों का अपौरुषेयत्व मान्य करने पर, भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा (प्रतारणा करने की इच्छा) इत्यादि पुरुषकृत दोषों की वेदों में कल्पना भी करना अयोग्य होती है। इसी सर्वकष निर्दोषता के कारण वेदवाक्यों को आप्तवचनरूप निरपवाद प्रामाण्य साम्प्रदायिकों द्वारा दिया गया है। साम्प्रदायिकों का वेदों के विषय में और भी एक सिद्धान्त है। उसे बताकर इस विषय को विराम देंगे।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 19
For Private and Personal Use Only