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चर्चा का विषय है। आप्तवाक्य का प्रामाण्य मानने वाले दार्शनिक आचायों ने उस संबंध में उत्कृष्ट युक्तिवाद प्रस्तुत किए है। श्रेष्ठ दार्शनिकों द्वारा अंगीकृत "आप्तवाक्य" के आधार पर, वेदों का जनिता परमात्मा ही है यह मत वैदिकों ने मान्य किया है। उसी मान्यता के साथ आनुषंगिकतया यह भी मानना पड़ता है कि सर्वज्ञ और निर्दोष परमेश्वर ही अगर वेदों का जनक होगा, तो उसके वेद भी सर्वज्ञानमय और निर्दोष ही होने चाहिए। जगद्गुरू श्रीशंकराचार्यजी ने वेदों का सर्वज्ञानमयत्व मानते हुए यह युक्तिवाद प्रस्तुत किया है कि, “महतः ऋग्वेदादेः शास्त्रस्य अनेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । न हि ईदृशस्य शास्त्रस्य ऋग्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञात् अन्यतः संभवः अस्ति ।" (ब्रह्मसूत्र शां. भा. 1-1-3) अर्थात् ऋग्वेदादि महान् शास्त्र अनेक विद्यास्थानों से (4 वेद, 6 शास्त्र, धर्मशास्त्र, पूर्वोत्तर मीमांसा और तर्कशास्त्र इन चौदह विद्याओं को “विद्यास्थान" कहते हैं) विकसित हुआ है और वह प्रदीपवत् सारे विषयों को प्रकाशित करता है। इस प्रकार के सर्वज्ञानसंपन्न शास्त्र का (अर्थात वेदों का) उत्पत्तिस्थान ब्रह्म ही हो सकया है, क्यों कि, सर्वज्ञ परब्रह्म परमात्मा के अतिरिक्त और किसी से ऋग्वेदादि सर्वज्ञानसंपन्न शास्त्र की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
सर्वज्ञ ईश्वर ही वेदों का जनक होने के कारण, उसका वेदरूप कार्य भी सर्वज्ञानपूर्ण होना चाहिए; इस अनुमान से भी जगद्गुरू शंकराचार्य का युक्तिवाद अधिक वेदनिष्ठापूर्ण है। वे कार्यरूप वेदों का सर्वज्ञानमयत्व सिद्धवत् मानकर उसके कारण की सर्वज्ञानमयत्व का तर्क प्रस्तुत करते है। इस तर्क के अनुसार परब्रह्म परमात्मा सर्वज्ञानमय होने के कारण, वही वेदों का जनक या निर्माता माना जा सकता है।
श्रीशंकराचार्यजी ने वेदों का ईश्वर- कर्तकत्व सिद्ध करते हुए, वेदों के विषय में “विद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावधोतिनः, सर्वज्ञकल्पस्य इत्यादि जो विशेषण प्रयुक्त किए हैं, उनमें यत्किंचित् भी अतिशयोक्ति का अंश नहीं है। इसका पहला कारण श्रीशंकराचार्य जैसे परमज्ञानी महापुरुष ने उन विशेषणों का प्रयोग किया है और दूसरा कारण यह है कि, अतिप्राचीन काल से आज तक की प्रदीर्घ कालावधि में विविध प्रकारों से जो वेदों का मंथन और चिन्तन हुआ, उससे भी उन विशेषणों की यथार्यता सिद्ध हुई है।
जगद्गुरू श्रीशंकराचार्य की वेदों की "सर्वज्ञानमयता पर इतनी प्रगाढ श्रद्धा है कि अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में, पांचरात्र नामक मत का खंडन करते हुए, उन्होंने यह युक्तिवाद प्रस्तुत किया है कि, "शांडिल्य को चारों वेदों में निःश्रेयस का मार्ग न दिखने के कारण" उसने इस शास्त्र (पांचरात्रदर्शन) का ज्ञान प्राप्त किया, इस प्रकार के पांचरात्र दर्शन के स्तुतिवाक्यों में से वेदों की निन्दा ध्वनित होती है, अतः वह दर्शन भी अग्राह्य मानना चाहिए। (विप्रतिषेधश्च भवति। चतुर्पु वेदेषु परं श्रेयः अलब्ध्वा शाण्डिल्यः इदं शास्त्रम् अधिगतवान् इत्यादि वेदनिन्दादर्शनात्)।
भगवान् व्यास ने भी “विप्रतिषेधाच्च" (2-2-45) इस ब्रह्मसूत्र के द्वारा यही मत सूचित किया है। इस प्रकार वेदों का ईश्वरकर्तृकत्व उपपत्ति और उपलब्धि (अनुमान और आप्तवाक्य) इन प्रमाणों के आधार पर सिद्ध मानते हुए, अर्वाचीन (पाश्चात्य तथा पौरस्त्य) पंडितों ने अथवा प्राचीन वेदविरोधी नास्तिक पण्डितों ने माना हुआ वेदों का पौरुषेयत्व याने पुरुषकर्तृकत्व वैदिकों की परम्परा में अप्रमाण माना गया है।
वेदों का नित्यत्व और अपौरुषेयत्व परंपरावादियों ने शिरोधार्य माना हुआ वेदों का नित्यत्व तथा अपौरुष्येत्व का सिद्धान्त विविध "आस्तिक" दर्शनों के आचार्यों ने अन्यान्य युक्तिवादों से प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है- भगवान् जेमिनिजी ने अपने पूर्व-मीमांसा दर्शन में इस विषय की चर्चा की है। “कमैके तत्र दर्शनात्" इस सूत्र से आगे 12 सूत्रों में वेदों का अनित्यत्व प्रतिपादन करनेवाले पूर्वपक्ष के तर्क सविस्तर देकर, आगे "नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वात्" (1-1-6) इत्यादि छः सूत्रों व्दारा अनित्यवादी पक्ष के तकों का खंडन करते हुए वेदों का नित्यत्व बडी मार्मिकता से प्रतिपादन किया है।
उत्तर-मीमांसा दर्शन में भगवान् बादरायण व्यासजी ने “शास्त्रयोनित्वात्" इस सूत्र के द्वारा वेदों का उद्गम परब्रह्म से ही हुआ है इस सिद्धान्त को स्थापित कर, यह निष्कर्ष बताया है कि, परमात्मा नित्य होने के कारण उस का ज्ञान याने वेद भी, नित्य ही होना चाहिये।
___वैशेषिक दर्शन में वेदों का अपौरुषेयत्व और स्वतःप्रामाण्य “तद्वचनात् आम्नायस्य प्रामाण्यम्" इस सूत्र द्वारा प्रतिपादन किया है। इस सूत्र का विवरण करते हुए उपस्कारभाष्य में कहा है कि सूत्रस्थ “तत्" शब्द ईश्वरबोधक है, क्यों कि ईश्वर ही वेदों का जनक है यह बात सुप्रसिद्ध और सिद्ध है। (तद् इति अनुपक्रान्तमपि प्रसिद्धि-सिद्धतया ईश्वर परामशति"- (वैशैषिक सूत्र उपस्कार भाष्य)। इसी सूत्र का दूसरे प्रकार से अर्थ निकाल कर, वेदों का प्रमाण्य सिद्ध किया गया है। जैसे:- "सूत्रस्थ तत् शब्द, समीपस्थ धर्म यह अर्थ बताता है। अतः धर्म का प्रतिपादन करने के कारण, वेद को प्रामाण्य प्राप्त हुआ है। जो वाक्य प्रामाणिक या प्रमाणासिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करता है वह (वाक्य) प्रमाणभूत ही होता है। (यद् वा तत् इति सन्निहितं धर्ममेव परामशति। तथा च धर्मस्य वचनात्-प्रतिपादनात् वेदस्य प्रामाण्यम्। तत् प्रमाणम् एव यतः इत्यर्थः (उपस्कारभाष्य)
अन्य साधारण ग्रन्थों के समान वेद भी ग्रन्थ रूप ही होने के कारण, पौरुषेय अर्थात् मनुष्यनिर्मित ही होने चाहिये, यह 18 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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