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कारण नष्ट हुए और उनके साथ सामवेद की सहस्र शाखाओं का विलय हुआ। आगे चलकर सुकर्मा के पौषिजी, हिरण्यनाभ और कौसल्य इन शिष्यों ने कुछ संहिताओं का प्रवचन किया उनमें से आसुरायणीया, वार्तात्रेया, प्रांजल ऋग्वेदविद्या प्राचीनयोग्या और राणायनीय नामक सात शाखाएं अवशिष्ट रहीं। राणायनीय शाखा के शाख्यायनीय, सात्यमुद्गल, खल्वल, महाखल्वल, लांगल, कौथुम, गौतम और जैमिनीय नामक नौ भेद हैं। आज सामवेद की शाखाओं में से कर्नाटक में कौथुमी तथा गुजरात और महाराष्ट्र में राणायनी विद्यमान है।
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आर्यों का मनगढंत आक्रमण
वेदनिर्मिति के काल और स्थल का अन्वेषण करने के उद्योग में, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा आर्य लोग, उनका मूल वसतिस्थान, उनका किसी बाहर भूभाग से वायव्य सीमा की ओर से भारत में आक्रमण, उस आक्रमण की दक्षिण भारत की ओर प्रगति और उस प्रगति के प्रयत्न में आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासी द्रविड, नाग इत्यादि समाजों का पराभव तथा विनाश इत्यादि निराधार कल्पनाओं को अवास्तव महत्त्व दिया गया है। संस्कृत भाषा और तदन्तर्गत विविध प्रकार के वाङ्मय का यूरोपीय विद्वानों को जब से परिचय हुआ, तब से वहां के अनेक विद्वानों को, भाषाविज्ञान, पुराणकथाशास्त्र इत्यादि विषयों का तौलनिक अध्ययन करते हुए, एक बात ध्यान में आयी कि प्राचीन भारतीय तथा यूरोपीय और अन्य कुछ राष्ट्रों की संस्कृति में अनेक बातों में अद्भूत साम्य है। इस साम्य के कारण यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि समान संस्कृति वाले ये भिन्न भिन्न समाज मूलतः एक ही वंश के होना संभव है। उनका मूलस्थान भी एक ही होना चाहिए। उस संभाव्य मूल स्थान से वे समाज, किसी कारण संसार में यत्र तत्र प्रसृत हुए होंगे। इस कल्पित समाज को इंडो-यूरोपीय अथवा आर्य नाम दिया गया। सुप्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर ने आर्यों के इस काल्पनिक आक्रमण की कल्पना पर विशेष बल दिया था, परंतु सन 1888 में उनका मत परिवर्तन हुआ, तब वे कहते हैं कि, "आर्यों के मूलस्थान के विषय में उपलब्ध प्रमाण इतने पोले और निराधार हैं कि उसके आधार पर, संसार के किसी भी भूभाग को आर्यों का मूलस्थान करके सिद्ध करना संभव हो सकता है। (The evidence is so plain that it is possible to make out a more or less plausible case for almost any part of the world.")
इसी संदर्भ में वे कहते हैं कि "मैं जब जब "आर्य" संज्ञा का उपयोग करता हूं तब तब मेरे समक्ष आर्यवंश नहीं, अपि तु "आर्यन्" भाषा होती है। भाषा के नाम पर वंश की कल्पना करना सरासर भूल है।"
आधुनिक वाड्मय में "आर्य" संज्ञा का प्रयोग सर्वप्रथम सर विलियम जोन्स ने किया परंतु उन्होंने भी भाषावंश के अर्थ में वह प्रयोग किया था न कि मानववंश के अर्थ में। ऋग्वेद में प्रयुक्त आर्य और अनार्य संज्ञा वंशवाचक नहीं है, यह तथ्य डॉ. श्रीधर व्यंकटेश केतकर ने अपने महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश में सविस्तर प्रतिपादित किया है।
आर्यों का भारत पर आक्रमण सिद्ध करने वाले विद्वान, ऋग्वेद के दाशराज्ञ युद्ध का उल्लेख प्रबल वैदिक प्रमाण के नाते प्रस्तुत करते हैं। परंतु प्रत्यक्ष वैदिक वाङ्मय की दृष्टि से इस प्रमाण को कितना महत्त्व देना चाहिए यह प्रश्न बाकी रहता है । एक सहस्र सूक्तों के ऋग्वेद में इस युद्ध का निवेदन केवल तीन सूक्तों मे हुआ है, जिस में सुदास नामक राजा को, दस राजाओं द्वारा विरोध होने के कारण, भडके हुए युद्ध का निर्देश किया गया है । इस अत्यल्पमात्र वैदिक प्रमाण के अतिरिक्त, सारे संसार के प्राचीन वाङ्मय में तथाकथित आर्यों के आक्रमण की और दूरान्वित संकेत करने वाला भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। प्रत्यक्ष ॠग्वेद में भी उन तीन सूक्तों के अतिरिक्त दूसरा कोई भी प्रमाण नहीं है। किसी भी भटकने वाले जनसमूह में, किसी भूभाग के प्रति उत्कट आत्मीयता की भावना नहीं होती, परंतु ऋग्वेद के मन्त्रों में ऋषियों की भूमिभक्ति की ओर संकेत करते हुए प्रसिद्ध विद्वान जयनाथपति आर्याक्रमणवादियों को पूछते हैं, "आपने संसार में ऐसे सुसंस्कृत लोग कहीं देखे है कि जिन्हें अपने मूल निवासस्थान का विस्मरण हो कर नए घर का आकर्षण हुआ है।" (Have you ever found cultured foreigners, forgetting their old homes and becoming enamoured of their newly made conquest.)
आर्यों के आक्रमण की भ्रान्त धारणा को जिस प्रकार वेदों में प्रमाण नहीं है, उसी प्रकार पुराणों की विशाल वाङ्मयराशि में भी कोई प्रमाण नहीं है। भारतीय पुराण वाङ्मय के प्रसिद्ध अध्येता पार्जिटर (अथवा पारगीटर) कहते हैं कि “वायव्य दिशा की ओर से भारत पर हुए आक्रमण की कल्पना स्वभावतः ही असंभव है और परम्परा की दृष्टि से भी वह अनावश्यक है। (Impossible in itself---wholly unnecessary according to tradition.)
इस आर्याक्रमण की कल्पना का स्वामी विवेकानंद ने साफ शब्दों में इन्कार और धिक्कार किया है। स्वामीजी कहते हैं, "पाश्चात्यों के इतिहास में अंग्रेज, अमेरिकन इत्यादि कुछ लोगों द्वारा स्थान स्थान पर मूल निवासी लोगों को पराजित और गुलाम करने की घटनाएं हुई। उसी के आधार पर इतिहास-संशोधकों की बुद्धि भारत के प्राचीन काल में उडान करती है। कोई तिब्बत को तो कोई मध्य एशिया को आर्यों का मूलस्थान कहता है। देशाभिमानी और घमंडी पाश्चात्य विद्वान अपने अपने भूभाग की ओर आर्यों का मूलस्थान खींचता है। कोई उत्तर ध्रुव प्रदेश का भी प्रतिपादन करते हैं । परंतु हमारे वेद-पुराण आदि ग्रंथों में 16 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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