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यह वेद स्वतंत्र नहीं है फिर भी उसकी विशेषता अनोखी है और यज्ञविधि में उसका अपना स्थान स्वतंत्र है। चरणव्यूह की टीका में महीदास कहते हैं कि, सामवेद की कुल सोलह शाखाओं में से कौथुमी, जैमिनीय और राणायनीय ये तीन शाखाएँ गुर्जर, कर्णाटक और महाराष्ट्र में विद्यमान हैं। सायणाचार्य ने केवल राणायनीय शाखा पर अपना भाष्य लिखा है।
सामवेद में पाठभेद सामवेद की कौथुम और राणायनीय शाखाओं में कुछ अल्पमात्र पाठभेद है। राणायनीय शाखा के पाठ प्रमुख माने जाते थे। परंतु सन 1842 में स्टीव्हन्सन (लंदन) और 1848 में बेनफे (लिझिग्) इन पाश्चात्य विव्दानों ने जर्मन अनुवाद तथा टिप्पणी सहित सामवेदीय शाखाओं का संस्करण प्रकाशित किया। इस कारण नवीन वैदिक विव्दान, परम्परागत पाठ को अप्रमाण मानते है। आगे चल कर वही नया राणायनीय पाठ, सायणभाष्य के साथ भारत में प्रकाशित हुआ। सन 1868 में कौथुम शाखा प्रकाशित हुई, परंतु उसमें पाठ सुव्यवस्थित न होने के कारण सामवेदीय विव्दान उसे प्रमाणभूत नहीं मानते। इस प्रकार सामवेद के प्रमाणभूत पाठ, आज विवाद और अन्वेषण के विषय हुए हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार समग्र वेद समकालीन माने गए हैं। अतः उनकी पौर्वापर्यविषयक चर्चा को महत्त्व नहीं दिया जाता। सामवेद में ऋग्वेद के मंत्र अवश्य मिलते हैं, परंतु ऋग्वेद में भी (1-5-8) साम का निर्देश किया है। इसका अर्थ ऋग्वेद को साम का अस्तित्व अज्ञात नहीं था। साम अगर उत्तरकालीन होते तो. ऋग्वेद में साम का यह उल्लेख नहीं होता।
सामगान यज्ञविधि में उद्गाता को अपने साममंत्रों का गायन करना पड़ता है। मंत्रों के गानविधि का विवेचन करने वाले कुछ ग्रंथ भी निर्माण हुए, उनमें चार प्रमुख ग्रंथों में सामगान की पद्धति का पूर्णतया विवरण किया है। सामान्य लौकिक संगीत शास्त्र से सामगान की पद्धति अलग सी है। तथापि संगीत शास्त्रोक्त सप्त स्वरों का प्रयोग सामगान में होता है। सामगान पद्धति में गेय स्वरों के नामः- क्रुष्ठ, प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, मन्द्र, अतिस्वर्य इस प्रकार दिए जाते हैं। सामवेदीय छांदोग्य उपनिषद् में, सामगान के हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधान नामक पांच विभाग बताए हैं। उनमें से प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार का अन्तःकरण के भावों से और निधान का तानों से संबंध माना जाता है।
शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि "नासामा यज्ञो भवति। न व वाऽहिंकृत्य साम गीयते।" अर्थात् सामगान के बिना यज्ञ नहीं होता और हिंकृति के बिना सामगान नहीं होता। इस प्रकार सामगान की महिमा अन्यत्र विविध स्थानों में वर्णन की है। सामवेद के मंत्रों में उपासना के साथ योगविधि और आध्यात्मिक उपदेश भी किया हुआ है।
____ ऋचाओं का सामगान में रुपान्तर करने के हेतु, हा, उ, हो, इ, ओ, हो, वा, ओ, इ, औ, हा, इ, इस प्रकार के पद जोड़े जाते हैं। इन पदों को "स्तोभ" कहते हैं। स्तोभ और स्वर की सहायता से ऋचा का रूपान्तर गान में होता है।
वेदों में स्वरांकन - वेद ग्रंथों में स्वरों का निर्देश करने के चार प्रकार विद्यमान हैं। ऋग्वेद में उदात्त स्वर का चिह्न नहीं होता। अनुदात्त स्वर का निर्देश अक्षर के नीचे आड़ी रेखा से होता है और स्वरित का निर्देश उपर खड़ी रेखा से किया जाता है।
कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी और काठक संहिता में उदात्त का निर्देश उपर खड़ी रेखा से होता है। शुक्ल यजुर्वेदी शतपथ ब्राह्मण में उदात्त स्वर, नीचे आड़ी रेखा से दिखाया जाता है। परंतु सामवेद में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित स्वरों का निर्देश 1,2,3 अंकों से किया जाता है। उसी प्रकार संगीत के षड्जादि स्वरों का निर्देश 1 से 7 तक अंकों द्वारा किया जाता है। अधिकांश सामवेदी मंत्रों में पांच ही संगीत-स्वरों का उपयोग होता है।
ऋचाओं का सामगान में परिवर्तन करने के लिए, (1) विकार, (2) विश्लेषण, (3) विकर्षण, (4) अभ्यास, (5) विराम और (6) स्तोभ इन छ: उपायों का अवलंब होता है। स्वरमण्डल में इन छ: उपायों के साथ सामगान होता है। सामगान के विविध प्रकार, मधुछन्दस्, वामदेव, इत्यादि जिन ऋषियों ने निर्माण किए उन्ही के नाम से वे गानप्रकार प्रसिद्ध हैं।
हस्तवीणा जिन सामवेदियों को गेय स्वरों के उच्चारण की शक्ति नहीं थी, उन्होंने स्वरनिर्देशन के लिए “हस्तवीणा" की पद्धति शुरू की। हाथों की पहली, दूसरी इत्यादि अंगुली द्वारा षड्जू, ऋषभ, गंधार इत्यादि स्वरों का निर्देश करने की पद्धति नारदीय शिक्षा में बताई है। आज सामगायकों की संख्या अत्यल्पतम है। वे “हस्तवीणा" द्वारा स्वरों का निर्देश करते हैं।
. सामवेदी परंपरा भगवान् व्यास ने जैमिनि को सामवेद की संहिता प्रदान की। महाभारत के अनुसार यही जैमिनि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में और जनमेजय के सर्पसत्र में उपस्थित थे। जैमिनि द्वारा सुमन्तु, सुत्वा, सुकर्मा इत्यादि शिष्यपरंपरा प्रवर्तित हुई। सुकर्मा ने सहस्र संहिताओं का विस्तार कर, शिष्य परंपरा बढ़ाई। परंतु वे सारे शिष्य विद्युत्पात अथवा भूचाल स्वरूप इन्द्र के प्रकोप के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /15
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