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समवाय१
"सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं"
संस्कृत भाषा का यह लचीलापन है कि - अलग-अलग पदच्छेद करने, से अलगअलग अर्थ हो जाते हैं। जैसे कि - इसकी संस्कृत छाया की गई है -
"श्रुतम् मया हे आयुष्मन् तेन भगवता एवं आख्यातम्।" • जिसका अर्थ है - हे आयुष्मन् जम्बू! मैंने सुना है - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार फरमाया है। दूसरी तरह से इसकी संस्कृत छाया इस प्रकार की है -
"श्रुतम् मया आयुष्मता भगवता।"
अर्थात् आयुष्य वाले भगवान् ने इस प्रकार फरमाया है - इसका तात्पर्य यह है कि - जब तक आयुष्य है तब तक भगवान् वाणी फरमा सकते हैं। आयुष्य समाप्त होने पर नहीं फरमा सकते। तीसरी, चौथी और पांचवीं वक्त संस्कृत छाया करते हुए - "आउसंतेणं" शब्द का सुधर्मा स्वामी का विशेषण बनाया है। संस्कृत छाया बनाई है - "आवसता मया श्रुतम्" अर्थात् - गुरु महाराज के पास रहते हुए मैंने सुना है। चौथी छाया की है - "आमशता मया श्रुतम्" विनय पूर्वक भगवान् के दोनों चरण कमलों को दोनों हाथों से स्पर्श करते हुए मैंने सुना है। पांचवीं छाया की है - "आजुषमाणेन मया श्रुतं" हृदय में भगवान् के प्रति बहुमान रखते हुए भक्ति और प्रीतिपूर्वक योगों की स्थिरतापूर्वक मैंने सुना है। इस प्रकार एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न पदच्छेद करते हुए भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं। तीर्थङ्करों की पाट परम्परा चले इस अभिप्राय से तथा अपने वचनों में विशेष श्रद्धा उत्पन्न हो इस दृष्टि से श्री सुधर्मास्वामी ने फरमाया है कि - मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है। अर्थात् साक्षात् सुना है, परम्परा से नहीं। आचाराङ्ग सूत्र में भगवान् ने फरमाया है कि - 'सव्वे पाणा पियाउया' अर्थात् सब प्राणियों को अपना आयुष्य प्रिय है इसलिये श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बूस्वामी को 'हे आयुष्मन् जम्बू!' इस सम्बोधन से सम्बोधित किया है।
.जो ज्ञान दर्शन रूप उपयोग में निरन्तर रहे, उसे आत्मा कहते हैं। उपयोग रहित को अनात्मा (अजीव) कहते हैं। प्रत्येक आत्मा असंख्यात प्रदेशी होते हुए भी द्रव्य रूप से एक है। दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काया रूप दण्ड (हिंसा मात्र) सामान्य रूप से एक है इसी प्रकार ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और तिरछा लोक तीनों असंख्यात प्रदेशी होते हुए भी द्रव्य रूप से एक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी हैं। आकाशास्तिकाय
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