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समवाय१
सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं - ( इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थयरेणं सयंसंबुद्धणं पुरिसुत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगुत्तमेणं लोगणाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपजोयगरेणं अभयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं बोहिदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मणायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टिणा दीवो ताणं सरणं गइपइट्टा अप्पडिहयवरणाणदसणधरेणं वियदृछउमेणं जिणेणं जावएणं तिण्णेणं तारएणं बुद्धेणं बोहएणं मुत्तेणं मोयगेणं सव्वण्णुणा सव्वदरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्ति सिद्धिगइ णामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते तंजहा - आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विवाहपण्णत्ती णायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइयदसाओ पण्हावागरणं विवागसुए दिट्ठिवाए। तत्थणं जे से चउत्थे अंगे समवाए त्ति आहिए, तस्स णं अयमढे पण्णत्ते तंजहा-) एगे आया, एगे अणाया, एगे दंडे, एगे अदंडे, एगा किरिया, एगा अकिरिया, एगे लोए, एगे अलोए, एगे धम्मे, एंगे अधम्मे, एगे पुण्णे, एगे पावे, एगे बंधे, एगे मोक्खे, एगे आसवे, एगे संवरे, एगा वेयणा, एगा णिजरा। ___ कठिन शब्दार्थ - सुयं - सुना है, मे - मैंने, आउसं - हे आयुष्मन्!, तेणं - उन, भगवया - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने, अक्खायं - फरमाया है, एगे - एक, आया - आत्मा, अणाया - अनात्मा, धम्मे - धर्मास्तिकाय, अधम्मे - अधर्मास्तिकाय।
भावार्थ :- पांचवें गणधर श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि - हे आयुष्मन् जम्बू! मैंने सुना है उन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस प्रकार फरमाया है - इस वर्तमान जैन शासन के विषय में श्रुतधर्म की आदि करने वाले, धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले, स्वयंसंबुद्ध यानी अपने आप ही बोध पाये हुए, पुरुषों में उत्तम, पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में पुण्डरीक-श्रेष्ठ सफेद कमल के समान, पुरुषों में प्रधान गन्धहस्ती के समान, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक के लिए दीपक के समान, लोक में उद्योत करने वाले, जीवों को अभयदान देने वाले, ज्ञान रूपी चक्षु को देने वाले, मोक्षमार्ग को देने वाले, शरण देने वाले, संयम एवं ज्ञान रूप जीवन देने वाले, बोधि अर्थात् ® यह पाठ किसी किसी प्रति में है। इसलिए इस सारे पाठ को कोष्ठक (ब्रेकिट) में दिया गया है।
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