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समवायांग सूत्र
नहीं थे, कभी नहीं हैं और कभी नहीं रहेंगे, ऐसी बात नहीं किन्तु ये पांच अस्तिकाय भूतकाल में थे, वर्तमान में हैं और भविष्यत् काल में भी रहेंगे । इसी प्रकार यह द्वादशांग वाणी कभी नहीं थी, कभी नहीं है और कभी नहीं रहेगी ऐसी बात नहीं किन्तु भूतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्यत् काल में रहेगी। अतएव यह मेरु पर्वत के समान ध्रुव है, लोक के समान नियत है, काल के समान शाश्वत है, निरन्तर वाचना आदि देते रहने पर भी इसका क्षय नहीं होने के कारण वह अक्षय है। गंगा सिन्धु नदियों के प्रवाह के समान अव्यय है। जम्बूद्वीप, लवण समुद्र आदि द्वीप समुद्रों के समान अवस्थित है और आकाश के समान नित्य है। यह द्वादशाङ्ग वाणी गणि-पिटक के समान है। अर्थात् गुणों के गण एवं साधुओं के गणं को धारण करने से आचार्य को गणी कहते हैं। पिटक का अर्थ है पेटी या पिटारी अथवा मंजूषा । आचार्य एवं उपाध्याय आदि सब साधु साध्वियों के सर्वस्व रूप श्रुत रत्नों की पेटी (मंजूषा) को 'गणि-पिटक' कहते हैं। जिस प्रकार पुरुष के बारह अंग होते हैं। यथा - २ पैर, २ . जंधा, २ उरू (साथल), २ पसवाडे, २ हाथ, १ गर्दन, १ मस्तक। इसी प्रकार श्रुत रूपी . परम पुरुष के भी आचाराङ्ग आदि बारह अङ्ग होते हैं।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ग्यारह गणधर हुए थे। उनकी नौ वांचनायें हुई । अभी वर्तमान में उपलब्ध आगम पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी की वाचना के हैं। सम्पूर्ण दृष्टिवाद तो दो पाट तक ही चलता है। इसलिये दृष्टिवाद का तो विच्छेद हो गया है। ग्यारह अङ्ग ही उपलब्ध होते हैं। उसमें समवायाङ्ग सूत्र का चौथा नम्बर है।
नवाङ्गी टीकाकार श्री अभयदेवसूरि ने 'समवाय' शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है -
"सम् इति - सम्यक्, अव इति आधिक्येन, अयनं अय: - परिच्छेदः। जीवाजीवादि विविध पदार्थ सार्थस्य यस्मिन् असौ इति समवायः॥" ___ अथवा समवयन्ति - समवतरन्ति, संमिलन्ति नानाविधा आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन् असौ समवाय इति॥
"सम्" अर्थात् सम्यग् रूप से, "अव" अर्थात् अधिक विशेष रूप से, "अय" अर्थात् ज्ञान, बोधि। निष्कर्ष यह निकला कि - जिसमें जीव, अजीव आदि विविध पदार्थों के समूह का सम्यग् रूप से एवं विशेष रूप से परिच्छेद ज्ञान होवे, उसः 'समवाय" कहते हैं। अथवा आत्मा (जीव) अनात्मा (अजीव) आदि अनेक पदार्थों का अभिधेय (विषय) रूप से जिसमें मिलन होता है, अवतरण होता है उसको 'समवाय' कहते हैं। अब "समवाय सूत्र" का प्रारम्भ होता है। उसका प्रथम सूत्र यह है -
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