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Vol. xxx, 2006
कानून व्यवस्था के संरक्षक वैदिक वरुण देवता
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लेकिन यह दैवी कानून (व्यवस्था-नियम) क्या है ? का उत्तर जानने के लिए हमें प्राकृतिक जगत पर दृष्टिपात करना होगा - इस दृश्यमान जगत् की छोटी से छोटी वस्तु भी स्वेच्छा से प्रवृत्त नहीं होती है, अपितु एक व्यापक नियम के वशीभूत होकर अपने जीवन का विस्तार करती है। दिन के पश्चात् रात्रि का आगमन, नित्यप्रति अपनी किरणों से सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशमान करते हुए सूर्य का पूर्व दिशा में उदय, व रात्रि में रजत रश्मियों वाले चन्द्रमा का आविर्भाव आदि सभी दृश्य जगत् में विद्यमान व्यवस्था का प्रतिपादन करते हैं । इस समस्त चराचर में व्याप्त जगत् विषयक नियमों को संहिताओं में 'ऋत' की संज्ञा दी गयी है । यह 'ऋत' ही देवताओं का संचालक और नियन्ता है।
'ऋत' शब्द गत्यर्थक 'ऋ' (जाना) धातु से निष्पन्न माना गया है । 'ऋत' की इस गत्यर्थक व्यत्पत्ति के आधार पर 'ऋत' का अर्थ प्राकृतिक नियम यथा सूर्य, चन्द्र, तारे, पृथिवी, आकाश निरन्तर गतिशील पदार्थों की निश्चित गति भी माना जा सकता है । प्रकृति एवं उससे नियन्त्रित समस्त पदार्थों की सतत गति में एक निश्चित व्यवस्था, नियम या निश्चित कम दिखाई देता है जो अनादिकाल से चला आ रहा है, और जब तक विश्व है तब तक चलता रहेगा । इसी अभिप्राय से 'ऋत' को जगत् का नियन्ता कहा गया है। 'ऋत' के नियम का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता । 'ऋत' के इस कठोर नियमों से आबध्द ऊषा से सम्बद्ध एक ऋचा में कहा गया है - "धु लोक की दुहितृस्थानीय, ज्योतिर्मय वस्त्रों को धारण किए हुए सबके प्रति सद्भावना रखने वाली यह ऊषा-देवी सामने दृष्टिगोचर हो रही है । वह सत्य के मार्ग का बुद्धिपूर्वक अनुसरण करती है, और सब जानती हुई भी अपने नियमों का अतिक्रमण नहीं करती।"
"एषा दिवो दुहिता प्रत्यदर्शि ज्योतिर्वसाना समना पुरस्तात् । ऋतस्य पन्थामन्वेति साधु प्रजानतीव न दिशो मिनाति ॥" ऋग्वेद १/१२४/३
वेदों का यह 'ऋत' नित्य, शाश्वत और सबका पिता है। सूर्य, चन्द्र, रात-दिन, सुबह-साँय व ऋतुएं आदि सबका नियमन इसी 'ऋत' के द्वारा होता है । 'ऋत सभी प्रकार की सुख-शान्ति का स्रोत है।' 'ऋत' के मार्ग का अनुसरण करने से मनुष्य पाप में लिप्त नहीं होता । तथा उसके समस्त दु:खों का नाश हो जाता है।
'सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते' ऋग्वेद १/४१/४
वैदिक काल में 'ऋत' के द्वारा ही सबका नियमन होता था । 'ऋत' की स्थिति बने रहने पर ही जगत् की प्रतिष्ठा बनी रहती है और इस संतुलन के अभाव में जगत् का विनाश अवश्यंभावी है। लेकिन इस 'ऋत' को. नियमित करने वाले इस कानून के नियामक के अभाव में व्यवस्था भी संभव नहीं है। 'ऋत' (कानून) के इसी नियामक (संरक्षक) के रूप में हम वरुण की सत्ता पाते हैं । वरुण का स्वरूप नैतिक व्यवस्था के नियामक के रूप में अत्यन्त प्रभावशाली है । वरुण जिस 'ऋत' के अभिरक्षक हैं; और जिससे सारे देव भी आवद्ध हैं, उसका तात्पर्य सामान्यतः सृष्टिगत धर्म एवं सब प्रकार के नियमों से है।