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Vol. xxx, 2006
पञ्चीकरणम् : एक विश्लेषण
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के कारण व्यवहार के लिए इन्हें इस तन्मात्र स्थिति में भी यह औपचारिक संज्ञा दे दी जाती है। अन्वर्थक तन्मात्र पद से यही प्रतीत होता है कि शब्दादि की अनभिव्यक्त अवस्था में ऐसी स्थिति है जैसे किसी पदार्थ का संसर्गानवगाहि निर्विकल्पक ज्ञान होता है । या फिर व्याकरण में प्रयोगानह प्रातिपदिक का होता है। या साहित्य शास्त्र में साधारणीकृत रत्यादि भाव होते हैं । पञ्चप्राणाः, दशेन्द्रियाणि, मनोबुद्धिश्चेति सप्तदशकं....यह तन्मात्राओं के कार्य हैं । तन्मात्राओं के कार्य पंचमहाभूतों का परिगणन इस सूचि में नहीं किया गया है । पञ्चीकरणम् के मूल पाठ में केवल इतना ही कहा गया है कि पञ्चीकृत होने पर ये आकाशानिलानलसलिलावनि पंचमहाभूत हैं और अपञ्चीकृत अवस्था में ये तन्मात्र हैं । आचार्य का अभीष्ट यह प्रतीत होता है कि तन्मात्र और पञ्चीकृत महाभूत में पौर्वापर्य होने पर भी परस्पर साक्षात् कारणकार्य भाव सम्बन्ध नहीं है। दोनों एक ही हैं, सूक्ष्म अव्याकृत अवस्था में ये तन्मात्र हैं तथा स्थूल व्याकृत अवस्था में यही महाभूत हैं। सूक्ष्म शरीर के सत्रह अंग तन्मात्राओं के कार्य हैं तथा इन्हीं की अभिव्यक्ति पुन: स्थूल शरीर के रूप में होती है। यह स्थूल शरीर पाञ्चभौतिक है। इस प्रकार परम्परा सम्बन्ध से स्थूल महाभूतों के प्रति इन तन्मात्राओं की कारणता को समझा जा सकता है।
पञ्चीकृत पञ्चमहाभूत आत्मा का स्थूल शरीर है और अपञ्चीकृत पञ्चमहाभूत अर्थात् पंचतन्मात्रायें आत्मा का सूक्ष्म शरीर है। बुद्धिकर्मेन्द्रियप्राणपञ्चकैर्मनसा धिया । शरीरं सप्तदशभिः सूक्ष्म तल्लिङ्गमुच्यते ॥ पंचदशी -२३ । इन दोनों शरीरों का कारण आत्मा का अज्ञान है । यह 'माया' अपर नाम अज्ञान शुद्धचैतन्यब्रह्म से अभिन्न तथा उसकी ज्योति से आभासित है - शरीरद्वयकारणमात्माज्ञानं साभासमव्याकृतमित्युच्यते । शंकराचार्य के मूलपाठ पर सुरेश्वराचार्य सृष्ट्युत्पत्ति की प्रक्रिया को समझाते हुए कहते हैं -
आसीदेकं परं ब्रह्म नित्यमुक्तमविक्रियम् । तत्स्वमायासमावेशाद्बीजमव्याकृतात्मकम् ॥२॥ तस्मादाकाशमुत्पन्नं शब्दतन्मात्ररूपकम् । स्पर्शात्मकस्ततो वायुस्तेजोरूपात्मकं ततः ॥३॥ आपो रसात्मिकास्तस्मात्ताभ्यो गन्धात्मिका मही । शब्दैकगुणमाकाशं शब्दस्पर्शगुणो मरुत् ॥४॥ शब्दस्पर्शरूपगुणैस्त्रिगुणं तेज उच्यते । शब्दस्पर्शरूपरसगुणैरापश्चतुर्गुणाः ॥५॥ शब्दस्पर्शरूपरसगन्धैः पञ्चगुणा मही ।
तेभ्यः समभवत्सूत्रं भूतं सर्वात्मकं महत् ॥६॥ नित्यमुक्त तथा क्रिया रहित परम ब्रह्म एकाकी था । स्वयं अपनी शक्ति, माया (ब्रह्म की वह शक्ति जिसके कारण वह स्वयं प्रातिभासिक जगत् के रूप में प्रतीत होने लगे) के आवरण से वही ब्रह्म (ईश्वर), नाम