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जयपाल विद्यालंकार
SAMBODHI
मात्र शब्दार्थः (वाचस्पति मिश्र) । युक्तिदीपिका ने इसी बात को अधिक स्पष्टता से कहा है - कथं पुनस्तन्मात्राणीत्युच्यते, तुल्यजातीयविशेषानुपपत्तेः । अन्ये शब्दजात्यभेदेऽपि सति विशेषा उदात्तानुदात्तस्वरितानुनासिकादयस्तत्र न सन्ति, तस्माच्छब्दतन्मात्रम् । एवं स्पर्श तन्मात्रे मृदुकठिनादयः, एवं रूपतन्मात्रे शुक्लकृष्णादयः, रसतन्मात्रे मधुराम्लादयः, एवं गन्धतन्मात्रे सुरभ्यादयः । तस्मात् तस्य तस्य गुणस्य सामान्यमेवात्र न विशेष इति तन्मात्रास्वेतेऽविशेषाः ।। इन तन्मात्राओं से क्रमशः पञ्चमहाभूत अभिव्यक्त होते हैं - तेभ्यस्तन्मात्रेभ्यो यथासंख्यमेकद्वित्रिचतुष्पञ्चभ्यो भूतानि आकाशानिलानलसलिलावनि रूपाणि पञ्चभ्यस्तन्मात्रेभ्यः । वाचस्पति मिश्र की अपेक्षा माठर ने इसी बात को अधिक स्पष्टता से कहा है - शब्दादिभ्यः पञ्चभ्य आकाशादीनि पञ्चमहाभूतानि पूर्वपूर्वानुप्रवेशादेकद्वित्रिचतुष्पञ्चगुणान्युत्पद्यन्ते । युक्तिदीपिकाकार ने इससे भिन्न स्वमत दिया है - तत्र शब्दतन्मात्रादाकाशम्, स्पर्शतन्मात्राद्वायुः, रूपतन्मात्रात्तेजः, रसतन्मात्रादापः, गन्धतन्मात्रात् पृथिवी । इन महाभूतों की सुखदुःखमोहात्मकता पृथक् पृथक् अनुभव का विषय बनती है । यही इनका विशेष और महाभूतत्व है ।
वैशेषिक दर्शन परमाणुवादी है। द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाभावाः सप्त पदार्थाः । इन सात पदार्थों को आधार मानकर जगत् की व्याख्या की गई है । नव द्रव्यों में पृथिव्यप्तेजोवायु यह चारों महाभूतों की उत्पत्ति इनके अपने अपने परमाणुओं से हुई है ।
पृथिवी - पृथिवित्वसामान्यवती गन्धवती च पृथिवी (सप्तपदार्थी -शिवादित्य) । गन्ध पृथिवी का असाधारण धर्म है। गन्ध केवल पृथिवी में ही पाया जाता है अन्य द्रव्यों में गन्ध की प्रतीति औपाधिक होती है। अग्नि में केवल भास्वर शुक्ल रूप होता है पृथिवी में सातों प्रकार का रूप पाया जाता है इस कारण नानारूपवती यह पृथिवी का एक दूसरा लक्षण भी माना गया है । इसी प्रकार छह प्रकार का रस भी केवल पृथिवी में ही पाया जाता है। जल मे केवल मधुर रस ही होता है। उष्णस्पर्श तेज का धर्म है । शीतस्पर्श जल का धर्म है। पृथिवी में न उष्ण न शीत स्पर्श गुण पाया जाता है । इसके अतिरिक्त संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, संस्कार यह सामान्य गुण (कुल चतुर्दश) पृथिवी में पाये जाते हैं । परमाणु रूप पृथिवी नित्य और कार्य रूप पृथिवी अनित्य है ।
आप : - अप्त्वजातिमत्यः शीतस्पर्शवत्य आपः (सप्तपदार्थी-शिवादित्य) । वै.सू. में जल का लक्षण यह दिया गया है - रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवाः स्निग्धाः २-१-२ । अभास्वरशुक्ल रूप, केवल मधुर रस, केवल शीत स्पर्श, स्नेह, जो केवल जल में ही पाया जाता है, तथा स्वाभाविक द्रवत्व यह जल के स्वाभाविक गुण हैं । इसके अतिरिक्त संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, संस्कार यह सामान्य गुण (कुल चतुर्दश) जल में पाये जाते हैं । परमाणुरूप जल नित्य तथा कार्य रूप अनित्य है।
तेजस् - तेजस्वत्वजातियोगि उष्णस्पर्शवत्तेजः (सप्तपदार्थी-शिवादित्य) । तेजो रूपस्पर्शवत् (वै. सूत्र २-१-३) । भास्वरशुक्ल रूप और उष्ण स्पर्श यह दोनों ही तेज के विशेष एवं व्यावर्तक गुण