________________
236
कृपाशङ्कर शर्मा
SAMBODHI
(तर्क एवं समीक्षात्मक सम्पादन) विषय पर व्याख्यान दिया । आपने कहा कि ग्रन्थ की उच्च-समीक्षा के लिए तर्क का होना अत्यन्त आवश्यक है उसी के सहयोग से समीक्षा होगी । आपने अमरूकशतक, शाकुन्तलम जैसे अनेक उद्धरणों को प्रस्तुत किया।
तृतीय वक्ता प्रो० वसन्त भट्ट ने 'पाठलोचना में संशोधन एवं संस्करण' से संबद्ध व्याख्यान दिया इससे सम्बन्धित उन समस्त पहलुओं को विस्तारपूर्वक व्याख्यायित किया जो समीक्षा के
आवश्यक और उपादेय तत्त्व थे। डॉ० प्रीतिबेन पंचोली ने देवनागरी लिपि पर व्याख्यान दिया जिसमें लिपि उद्भव, विकास और उत्पत्ति स्थान, काल पर प्रकाश डाला । सभी वक्ताओं का परिचय स्वागत प्रो० कनुभाई शाह ने किया । १४ मई, २००७ :
डॉ० पी० एच० ठक्कर (अहमदाबाद) ने 'Probable Course of Vedic River Saraswati from Himalaya Mansarover to Gujarat and textual evidence' विषय से संबद्ध व्याख्यान में साहित्यिक आधार पर सरस्वती नदी के स्रोत कहाँ-कहाँ प्राप्त होते हैं, उसके अनुसंधान यात्रा पर प्रकाश डालते हुए साहित्यिक तथा पुरातात्त्विक साक्ष्यों के उद्धरण प्रस्तुत किये । साथ ही आपने भारतीय आस्था की केन्द्र विविध सरिताओं का उदगम और उनके प्रवाह स्रोतों को चिह्नित किया । जिनमें सरस्वती, ब्रह्मिन आदि प्रमुख रही है ।
एल०डी०इन्स्टिट्यूट के लिपिविद्व डॉ. प्रीतिबेन पञ्चोली ने लिपिप्रवाह की चर्चा की और देवनागरी लिपि के वर्णसाम्य और वैषम्य को उपस्थापित किया । डॉ. विजय पंड्या ने प्रमुख तौर पर रामायण के बालकाण्ड एवं सुन्दरकाण्ड के Enterpoletion (प्रक्षिप्तांश) के उद्धरणों को उद्घाटित करते हुए चर्चा की और तर्क और समीक्षा का परस्पर योग को व्याख्यायित किया । डॉ० प्रीतिबन पञ्चोली ने देवनागरी लिपि का अभ्यास प्रतियोगियों को कराया । १५ मई, २००७ :
कालिदास अनुकरणीय है भवभूति अनुकरणीय नहीं । यह बात डॉ० वसन्त कु मार भट्ट ने राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन की राष्ट्रीय कार्यशाला में "उत्तरराम-चरित की पाठपरम्परा और पाठालोचना के सिद्धान्त" विषय पर व्याख्यान प्रस्तुत किया । आपने उत्तररामचरितम् के अभी तक के प्रकाशित अङ्कों का अवलोकन कर अप्रकाशित पाण्डुलिपियों में प्राप्त पाठों के आधार पर अपना तर्क प्रस्तुत किया । और विस्तार से अपनी अनुसन्धान दृष्टि डाली।
हेमचन्द्राचार्य उत्तर गुजरात युनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति डॉ० बलवंत जानी ने "चारणी साहित्य लेखनपरम्परा" विषय पर केन्द्रित व्याख्यान दिया जिसमें बताया कि चारणी-साहित्य परम्परा का अलगाव स्वरूप है । इसमें पाठान्तर प्राप्त नहीं होते, (प्रक्षिप्तांश) का समावेश नहीं है । चारणीपरम्परा कौटुम्बिक है। इस परम्परा की हस्तप्रत का आकार व्यापारिक वही की तरह होता है । छन्द का वैविध्य तथा छन्दों का प्रकार आभूषणों की भांति होता है । अलंकारो के भी भिन्न-भिन्न रूप मिल