Book Title: Sambodhi 2006 Vol 30
Author(s): J B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 243
________________ 237 Vol. xxx, 2006 पाण्डुलिपियों और लिपिविज्ञान की अग्रीम कार्यशाला का अहेवाल 237 सकते हैं । इसका मूल उत्स भावानुकूल होता है । तथा इसकी प्रमुख विशेषता कण्ठस्थीकरण है । वक्ता का परिचय एवं स्वागत प्रो० कनुभाई शाह ने दिया । १६ मई, २००७ : ___ डॉ० प्रीतिबेन पञ्चोली ने देवनागरी के व्यञ्जनो के संयुक्त स्वरूपों का अभ्यास कराया जिनमें द्ध, द्व, ब्भ, प्भ्र, व्व, च्च, स्त, हीं, क आदि समाहित रहें । आपने बताया कि लिपिक (लेहिया) के प्रमादवशात्, अज्ञानवशात् इस प्रकार यदाकदा लिपि के आकार में परिवर्धन, परिवर्तन होता रहा है । तथा दसवी शता० से सद्यःकालीन देवनागरी का स्वरूप बताया । डॉ० बलवन्त जानी (राजकोट) ने चारणी-साहित्य लेखनपरम्परा, स्वरूप विषय पर व्याख्यान में कहा की चारणी-साहित्य को डिंगलट्रेडेशन के रूप में जाना जाता है। तथा इसको राज्याश्रय प्राप्त था । (इस की प्रमुख विशेषता यह है कि कुटुम्बिक (कौण्टुम्बिक) है इनका संरक्षण पीढ़ी दर पीढ़ी तक सुरक्षित रहा है। हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में चारणी के अनेक दोहा, छन्द आदि उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत हुए हैं । सोलंकीकालीन सौराष्ट्र में अनेक चारण राज्याश्रित होते रहे है । उस साहित्य के लेखन के लिए प्रस्तुतिकरण अनिवार्य होता था जो इस विद्या से परिचित होते थे वो ही चारणसाहित्य का लेखक होता था । इस साहित्य में उक्ति के चतुर्धा प्रकार है -(१) सन्मुख (२) श्रीमुख (३) परामुख (४) परमुख । इस पंक्ति के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध दोनों अलंकृत होना चाहिए । इसके अक्षर और विषय दोनों पर भी चर्चा की । डॉ० जानी ने चारणी के वर्ण और विषय पर प्रकाश डाला । आपने बताया कि चारणी साहित्य में ऐतिहासिक तथा धर्मचरित्र मूल प्रधान तत्त्व हैं । कभी-कभी लौकिक चरित्र भी समाविष्ट किया जाता रहा है। परन्तु ऐतिहासिक एवं राजनैतिकचरित्र अधिक प्राप्त होता रहा है। किन्तु इसमें भक्तिदर्शन का भी स्वरूप प्राप्त होता है। यह वैष्णवों का प्रभाव था । सहस्राधिक चारण कवि हुए है और लगभग इतने ही काव्य-ग्रन्थ लिखे गए हैं। एल० डी० इन्स्टिट्यूट के श्री विस्मय रावल ने 'कन्जरवेशन ऑफ मेन्युस्क्रीप्ट' विषय पर अपने व्याख्यान में हस्तप्रत संरक्षण के लिए प्रयुक्त रेस्टोरेशन आदी कई शब्दों का प्रचलन रहा है ऐसा बताया। श्री रावल ने हस्तप्रत के लिए प्राथमिक संरक्षण, क्यूरेटीव संरक्षण के बारे में विस्तृत जानकारी दी तथा वे सब पाण्डुलिपियों के साक्ष्य प्रस्तुत किये जिनमें किस प्रकार संरक्षण पद्धति अपनाई गई और कहां-कहां संरक्षण आवश्यक था और उसे किस प्रकार दर किया गया। इस प्रकार श्री रावल ने हस्तप्रत (पुरासम्पदा) के रखरखाव तथा उसके महत्त्वता के पक्ष पर विशेष बल दिया। वक्ता परिचय एवं स्वागत डॉ० प्रीति पञ्चोली ने किया । १७ मई, २००७ : ओरिएन्टल इन्स्टिट्यूट, बडौदा के डॉ० वाय० एस० वाकणकर ने 'History and development of Textual Critisim as a Branch of Research' विषय पर व्याख्यान देते हुए

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