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Vol. xxx, 2006
यूनानी सम्राट मिलिन्द....
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_ 'मिलिन्द' नागसेन से प्रश्न करते हैं - "भन्ते ! समाधि की क्या पहचान है ?''७९ नागसेन उत्तर देते हैं - "महाराज ! प्रमुख (अग्रसर) होना' समाधि की पहचान है । जितने कुशल धर्म हैं सभी समाधि के प्रमुख होने से होते हैं, इसी की ओर झुकते हैं, यहीं ले जाते हैं और इसी में आकर व्यवस्थित होते हैं ।''८० 'मिलिन्द' संवाद को आगे बढ़ाते हुये कहते हैं कि कृपया उपमा देकर समझाइये ।५ नागसेन स्पष्ट करते हैं "महाराज ! जैसे किसी मीनार की सभी सीढ़ियाँ सबसे ऊपर वाली मंजिल की ही ओर प्रमुख (ले जाने वाली) होती हैं, उसी ओर जाती हैं, वहीं जाकर समाप्त होती हैं, और वही सबसे श्रेष्ठ समझी जाती है, वैसे ही जितने पुण्य धर्म हैं वे सब समाधि की ओर अग्रसर होते हैं ।''८२२
नागसेन 'मिलिन्द' के समक्ष समाधि के अट्ठाइस गुणों का वर्णन करते हुये कहते हैं कि समाधि से - १. अपनी रक्षा होती है, २. दीर्घ-जीवन होता है, ३. बल बढ़ता है, ४. सभी अवगुणों का नाश होता है, ५. सभी अपयश दूर हो जाते हैं, ६. यश की वृद्धि होती है, ७. असन्तोष हट जाता है, ८. पूरा सन्तोष रहता है, ९. भय हट जाता है, १०. निर्भीकता आती है, ११. आलस्य चला जाता है, १२. उत्साह बढ़ता है, १३-१५, राग, द्वेष और मोह नष्ट हो जाते हैं, १६. झूठा अभिमान चला जाता है, १७. सभी सन्देह दूर हो जाते हैं, १८. चित्त की एकाग्रता होती है, १९. मन बहुत हल्का हो जाता है, २०. मन सदा प्रसन्न रहता है, २१. गम्भीरता आती है, २२. बड़ा लाभ होता है, २३. नम्रता आती है, २४. प्रीति पैदा होती है, २५. प्रमोद (हर्ष) होता है, २६. सभी संस्कारों की क्षणिकता का दर्शन हो जाता है, २७. पुनर्जन्म से छुटकारा हो जाता है और २८. श्रमण-भाव के यथार्थ फल प्राप्त होते हैं। महाराज ! समाधि के इन अट्ठाइस गुणों को देखते हुये सभी भगवान् उसका सेवन करते हैं ।८३
बौद्ध धर्म के स्वरूप को समझने के लिये चार आर्यसत्यों का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। दुःख क्यों होता है और दु:ख के निरोध का क्या उपाय है, इस समस्या का समाधान आर्यसत्यों के ज्ञान से ही सम्भव है । दुःखों के उपशमन के लिये ही बुद्ध ने अष्टाङ्गिक मार्ग की खोज की। इस अष्टाङ्गिक मार्ग के द्वारा भगवान् बुद्ध ने तप और त्याग का तथा भोग का यथार्थ भेद बतलाया । उन्होंने कहा कि प्राणिमात्र का हित करना ही सर्वश्रेष्ठ है । 'मिलिन्द' के समक्ष नागसेन ने यही समझाने का प्रयास किया है कि बुद्ध द्वारा उपदिष्ट अष्टाङ्गिक मार्ग का आचरण करने से व्यक्ति चोरी, शोषण, अत्याचार तथा अन्याय जैसे अमानवीय व्यवहार से पीछे हट जाता है । उसका नैतिकता के प्रति विश्वास बढ़ता चला जाता है
और समाज के सभी प्राणियों के प्रति उसके मन में मैत्री तथा भाई-चारे की भावना प्रबल होती जाती है। आज के भोग-प्रधान युग में जब चारों ओर हिंसा, क्रूरता, लोलुपता तथा मिथ्यात्व का साम्राज्य है तो बुद्ध उपदिष्ट अष्टाङ्गिक मार्ग की महत्ता और भी बढ़ जाती है। यद्यपि 'मिलिन्द' तथा 'नागसेन' के मध्य हुआ संवाद दो ऐतिहासिक पुरुषों के मध्य हुआ संवाद है परन्तु इसकी सार्वभौमिकता तथा सार्वकालिकता स्वयंसिद्ध है। आज के युग में मनुष्य दूसरे की सुख-समृद्धि को देखकर ईर्ष्या और द्वेषवश व्याकुल हो जाता है और दूसरे का दमन करना चाहता है, अनधिकृत क्षेत्र में प्रवेश करना चाहता है जिससे
अशान्ति और संघर्ष का वातावरण पैदा हो जाता है, ऐसी दशा में मनुष्य को पथ-भ्रष्ट होने से बचाने के लिये अष्टाङ्गिक मार्ग का आचरण सहायक हो सकता है।