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कानजीभाई पटेल
SAMBODHI
से प्रभावित है। सर्वास्तिवाद के त्रिपिटक को छोड़ कर विचार करें तो विंटरनिट्ज का उपरोक्त विचार ठीक ही लगता है। और ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर भी यह बात ठीक बैठती है । बौद्ध संस्कृत साहित्य की रचना होने लगी तब महायान का प्रभाव बढ़ रहा था। उस परिस्थिति में हीनयानियों के लिए भी महायान के प्रभाव से बचना कठिन था । अतः हम संस्कृत साहित्य न तो पूर्णतया हीनयानी या न तो पूर्णतया महायानी कह सकते है। विंटरविट्ज ने ठीक कहा है - Buddhist Sanskrit Literature is in no way, However, exclusively Mahāyānistic (Winternitz - History of Indian Literature- vol.II, Part-I, para 265, Bharatiya Vidya Prakashan, (1912), Delhi.
किन्तु इस विशाल संस्कृत साहित्य की खोज अभी अभी हुई है जिसका अपना एक अलग इतिहास है। पालि साहित्य का अध्ययन युरोप में अठारवी शताब्दी में आरंभ हुआ । पर बौद्ध संस्कृत साहित्य से पश्चिमी विद्वान अपरिचित थे। ई०स० १८१६ में नेपालयुद्ध के बाद खटमंडु में अंग्रेज रेजीडेन्ट रहने लगे। विद्याव्यसनी और गवेषणात्मक प्रवृत्तिवाले रेजीडेन्ट महाशय श्री बायन होजसन का ध्यान नेपाल में बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुआ । उन्होंने बौद्ध पंडित अमृतानन्द की मदद से काफी हस्तलिखित प्रतियों का संग्रह किया और उनको उन्होंने बंगाल की एशियाटीक सोसायटी तथा पेरिस के राष्ट्रिय पुस्तकालय
और लंदन की इन्डिया ऑफीस लायब्रेरी में बाँटकर भेज दिए । फ्रेंच विद्वान बर्नुफने पेरिस संग्रह के आधार पर बौद्ध धर्म का इतिहास फ्रेंच भाषा में लिखा । और पहली बार सद्धर्मपुंडरीक का अनुवाद किया ।
इसके बाद डॉ० राजेन्द्र लाल मित्र ने ई०स० १८८२ में Nepalese Buddhist Literature नामक ग्रंथ प्रकाशित करके नेपाल में सुरक्षित बौद्ध संस्कृत ग्रंथो की सूचि तथा संक्षिप्त वर्णन तैयार किया। इससे भी विद्वानों का ध्यान बौद्ध संस्कृत साहित्य की और गया । इसके बाद कुछ विद्वानों ने समय समय पर तिब्बत और नेपाली यात्रा कर काफी बौद्ध साहित्य को प्रकाशित किया । इधर युरोपिय विद्वानों ने मध्य एशिया में तुर्फान, काश्गर, खोतान, तोकारा और कुचा में खोज करके बहुत से हस्तलिखित ग्रंथ, लेख तथा चित्र प्राप्त किए । ई०स० १९०६-१९०८ तक स्टाइन महाशय ने तुंगहृवान में पुस्तकों का एक बड़ा ढेर पाया । इस खोज से कई भाषाओं तथा लिपियों के अस्तित्व का पता चला है । बौद्ध संस्कृत साहित्य के ग्रंथों का मिलना बौद्ध जगत में एक अनुपम घटना थी। इससे बौद्ध धर्म के विकास पर काफी प्रकाश पड़ा है।
संस्कृत बौद्ध साहित्य की जो खोज हुई है उसमें महायानियों का अपना कोई विशेष त्रिपिटक नहीं है। और यह हो भी नहीं सकता क्योंकि महायान किसी एक संप्रदाय का नाम नहीं है । नेपाल में नवग्रंथ विशेष आदर तथा श्रद्धा की दृष्टि से देखे जाते है । उन्हें नव धर्म भी कहते हैं । यहाँ धर्म से अभिप्राय धर्मपर्याय (धार्मिक ग्रंथ) से हैं । ये ग्रंथ हैं - सद्धर्मपुंडरीक, गण्डव्यूह, तथागतगुह्यक या तथागतगुणज्ञान, अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता, दशभूमिकसूत्र, ललितविस्तर, लंकावतारसूत्र, समाधिराज और सुवर्णप्रभ । इन्हें वैपुल्यसूत्र भी कहते हैं जो महायानसूत्रों की सामान्य संज्ञा है। ये ग्रंथ एक संप्रदाय के नहीं हैं और न एक समय की रचनाएँ हैं ।