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हेमलता श्रीवास्तव
SAMBODHI
अपरोक्ष एवं परोक्ष । अपरोक्ष एवं परोक्ष का यह भेद जैनेतर दर्शनों से भिन्न है । अन्य दर्शनों में यह भेद निर्विकल्प और सविकल्प के आधार पर किया गया है । अपरोक्ष ज्ञान को निर्विकल्प एवं परोक्ष ज्ञान को सविकल्प माना गया है । साधारणतया इन्द्रिय-प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं किन्तु इसमें निर्विकल्पता केवल इन्द्रिय-सम्वेदनांश में ही रहती है और इन्द्रिय-संवेदन को 'ज्ञान' के रूप में परिणत होने के लिए बुद्धि-विकल्पों द्वारा नियमित होना पडता है । अतः समस्त लौकिक ज्ञान, इन्द्रिय प्रत्यक्ष'ज्ञान' सहित, सविकल्प ही होता है । यह जान लेना आवश्यक है कि जैन दर्शन में अपरोक्ष और परोक्ष ज्ञान के भेद का आधार जैनेतर दर्शनों से भिन्न है । जो ज्ञान आत्म-सापेक्ष है अर्थात् जिस ज्ञान को आत्मा स्वयं जानता है उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उसे ज्ञानेन्द्रिय एवं मन आदि साधनों की आवश्यकता नहीं होती । वस्तुतः यह ज्ञान व्यवधान उत्पन्न करनेवाले कर्मों का नाश होने पर बिना किसी 'ज्ञान' अथवा 'साधन' की अपेक्षा के स्वतः ही अपना तथा अपने विषय का प्रकाश करता है । इस लिए यह पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान है । इसमें जीवात्मा का ज्ञेय वस्तुओं से साक्षात सम्बन्ध होता है । इसकी प्राप्ति अंशतः या पूर्णत: कर्म बन्धनों के नष्ट होने पर होती है । इसके विपरीत व्यावहारिक अपरोक्ष ज्ञान में ज्ञान की अभिव्यक्ति इन्द्रियों पर आश्रित होती है । यह ज्ञान इन्द्रिय-मनः सापेक्ष है अर्थात् जिस ज्ञान के लिए आत्मा को इन्द्रिय या मन या दोनों की आवश्यकता होती है वह व्यावहारिक अपरोक्ष ज्ञान या परोक्ष ज्ञान है । जैनों ने बतलाया है कि जिस ज्ञान को साधारणत: अपरोक्ष माना जाता है वह अपेक्षाकृत अपरोक्ष है । इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है वह अनुमान की तुलना में अवश्य अपरोक्ष है । फिर भी ऐसे ज्ञान को पूर्णतः अपरोक्ष कहना भ्रामक है । इस ज्ञान में स्पष्टता, तात्कालिकता और असन्दिग्धता होती है। यह मन और इंन्द्रिय के द्वारा प्राप्त होता है । अतः यह पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान की अपेक्षा कम पूर्ण है । जैनों के अनुसार मति और श्रुत ज्ञान शुद्ध इन्द्रिय ज्ञान के उदाहरण हैं । इनमें बाह्य और आन्तर प्रत्यक्ष व्यावहारिक अपरोक्ष ज्ञान इस लिए है क्योंकि वह स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और अनुमान आदि की अपेक्षा अधिक अपरोक्ष है। जैनों के इस विवेचन से प्रत्यक्ष की उस भूमिका पर प्रकाश पड़ता है जिसमें उसके द्वारा प्राप्त किया जानेवाला ज्ञान केवल इन्द्रिय या स्थूल ज्ञान नहीं है । उसका ज्ञान, स्थूल इन्द्रिय ज्ञान की अपेक्षा थोड़ा अधिक पूर्ण, स्पष्ट, तात्कालिक और असन्दिग्ध है । कम से कम जैनों ने प्रत्यक्ष को अपरोक्ष कहा । उसे अनुमान की अपेक्षा अपरोक्ष स्वीकार करते हुए व्यावहारिक अपरोक्ष ज्ञान की कोटि में रखा । यह स्वयं प्रत्यक्ष ज्ञान की एक विशिष्ट स्थिति का सूचक है ।
प्रत्यक्ष की उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार यद्यपि 'व्यावहारिक प्रत्यक्ष' की गणना 'प्रत्यक्ष' के अन्तर्गत नहीं की जानी चाहिए तथापि नवीन जैनाचार्यों ने लौकिक-प्रत्यक्ष में इन्द्रियों की उपयोगिता का महत्त्व समझकर उसे भी एक प्रकार का प्रत्यक्ष मानना स्वीकार किया है। प्राचीन सिद्धान्त में यद्यपि 'मति-ज्ञान' और 'श्रुत-ज्ञान' की गणना परोक्ष ज्ञान के अर्न्तगत की गयी है तथापि जैन-दर्शन के नवीन आचार्यों ने व्यावहारिक दृष्टि से इनको भी प्रत्यक्ष के अर्न्तगत माना है। उनके अनुसार इन्द्रिय एवं मन के द्वारा भी जिस ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है उसे भी 'प्रत्यक्ष' की कोटि में माना जा सकता है ।
पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान के तीन भेद हैं-अवधि, मनःपर्याय और केवल ज्ञान । जैनदर्शन के